विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजअष्टम-पुष्प 12. भगवान के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैंजिस समय भगवान ऊखल में बँध गये थे उस समय ऐसा कहा गया है- ‘गोपिकोलूखले दाम्ना बबन्ध प्राकृतं यथा’[1], यहाँ ‘प्राकृतं यथा’ इस उक्ति का क्या तात्पर्य है? इसका यही रहस्य है कि भगवान प्राकृत-भिन्न हैं। गीता में भगवान ने कहा है- जन्म कर्म च दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः। (हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं- अलौकिक हैं, जो इन्हें यथार्थ जानता है, वह इस शरीर को छोड़कर पुनर्जन्म प्राप्त नहीं करता, मुझे ही प्राप्त होता है- मुक्त हो जाता है।) सर्वे देहाः शाश्वताश्य नित्यास्तस्य महात्मनः। अर्थात् उन भगवान के सभी शरीर शाश्वत और नित्य हैं, हान और उपादान रहित हैं, प्रकृति से उत्पन्न-प्राकृति तो बिल्कुल हैं ही नहीं। इसी प्रकार और भी बहुत-सी उक्तियों से सिद्ध होता है कि भगवान का दिव्य मंगलमय विग्रह अप्राकृत ही है। जो लोग युक्तिवाद से उसे अनित्य या भौतिक सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं, उन्हीं से विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं- ‘ये तु भगवतो विग्रहं लक्ष्यीकृत्य युक्तिशरानादित्सवस्ते अर्थात जो भगवान की दिव्य मंगलमयी मूर्ति को लक्ष्य करके युक्तिरूप बाणों को ग्रहण करना चाहते हैं, वे घोर नरक में गिरेंगे, उनके साथ बात करने की भी आवश्यकता नहीं। ऐसा क्यों? जिस प्रकार ‘परदारान्नाभिगच्छेत्’ इत्यादि निषेध-वाक्यों का अतिलंघन करने से जीव नरकगामी होता है, वैसे ही भगवदीय-रहस्य के विषय में कुछ भी वाद-विवाद करने वाले पुरुष को अवश्य उसका दुष्परिणाम भोगना पड़ता है, क्योंकि भगवान की गति अचिन्त्य है और अचिन्त्य विषयों के सम्बन्ध में तर्क करना सर्वथा निन्दनीय है- तत्र तत्र हि दृश्यन्ते धातवः पांचभौतिकाः। (भिन्न-भिन्न लोकों में पांचभौतिक धातु दृष्टिगोचर होते हैं। मनुष्य तर्क के द्वारा उनके प्रमाणों का प्रतिपादन करते हैं।) अचिन्त्याः खलु ये भावा न तांस्तर्केण साधयेत्। (परन्तु जो अचिन्त्यभाव है, उन्हें तर्क से सिद्ध करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिये। जो प्रकृति से परे है, वही अचिन्त्य स्वरूप है।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत 10.9.14
- ↑ भगवद्गीता 4.9
- ↑ महाभारते भीष्म पर्वाणि 5.11
- ↑ महाभारते भीष्मपर्वाणि 5.12
- ↑ ब्रह्मसूत्र 1.1.5.5
- ↑ गीता 14.17
- ↑ ईक्षण
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