भागवत सुधा -करपात्री महाराजअंगुलिदलों से पाद-संवाहन किया- पैर दबाया। भोग भी चाहिए, नैवेद्य भी चाहिए। तो सुमधुर अधर सुधारस का भोग लगया। नैवेद्य निवेदन किया। फिर क्या था? भगवान रुद्र प्रसन्न हो गये। बोले- ‘वरं ब्रूहि’ वर तो वही था। भगवान रुद्र ने कहा- एक बार बजाओ मुझको। देखो तो सही श्री राधारानी कैसे नहीं मोहित होती हैं? सचमुच में श्री राधारानी वंशीरव को सुनते ही सान्द्रोन्मादपरम्परा को प्राप्त हो गई।
श्रीवृन्दावन भौम वैकुण्ठ है। यह परम वैकुण्ठ से भी रमण है। वैकुण्ठवासी यहाँ आये, वह भी यहाँ आया। जहाँ भगवान जाते हैं वहीं उनका धाम भी पधारता है। इसी अभिप्राय से सुमित्रा लखनलाल (लक्ष्मण) से कहती हैं- अवध तहाँ जहँ राम निवासू। किं वा ‘स्पदयोः रमणं रमणजनकं इति स्पदरमणम्’ भगवान के मंगलमय चरणारविन्दों को भी आनन्द देने वाला है। ‘स्वपदरमणं’=‘स्पस्याः आत्मीयायाः वृषभानुनन्दिन्याः पदैः रमणम् अर्थात श्रीवृष भानुनन्दिनी के मंगलमय चरणारविन्दों से सुशोभित श्री वृन्दावन धाम में श्रीकृष्ण पधारे। पुनः कैसे वृन्दावन में पधारे? दैत्यभोग्या वृन्दा भगवत्कृत्पा से भगवदीया हो गई। उस वृन्दा का अरण्य ही वृन्दारण्य है। अथवा ‘वृन्दायाः वनं यौवनं वृन्दावनम्’ वृन्दा का यह यौवन है। यह वृन्दावन वृन्दा का देदीप्यमान स्वरूप ही है। हर स्थिति में प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणाविन्दों में सुशोभित होना- यही वृन्दा की अद्भुत स्थिति है। जहाँ प्रभु शालग्राम विराजमान हों, वहाँ वह तुलसी रूप में सेवा करती है। जब प्रियतम, प्राणधन, पूर्णतम पुरुषोत्तम रूप में प्रभु ने ब्रज अवतार लिया तब वह यहाँ वृन्दावन में प्रकट हुई। यहाँ जो यमुना है, वह वृन्दा के हृदय की प्रेमानन्दरस सरिता है। जो तरु हैं बह रोमांच और भूमि ही देह है। इसलिए ब्रजांगनाएं ईर्ष्या करती हैं- सखि! मदनमोहन श्यामसुन्दर वृन्दावन धाम में पधारे हैं। यहाँ सब विपरीत ही विपरीत हो रहा है। हमारी अधरसुधा का वे कितना दुरुपयोग करते हैं। सखि! जड़, सच्छिद्र, शुष्क बाँस के छिद्रों में वे भरते हैं। हम चाहती हैं, हमारे हृदय में उनके चरणाविन्द स्थापति हों। पर नहीं! वे वृन्दारण्य में पधारे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (रामचरितमानस 2/3/3)
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