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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
17. कण्व ब्राह्मण पर अद्भुत कृपा
मधुवन के उस शान्त आश्रम की ओर किसी का भी ध्यान आकर्षित न होता था। सघन वनश्रेणी उसे अन्तर्हृदय में छिपाये रखती थी। अभेद्य कण्टकजाल क्षीण पगडंडियों के द्वार रोके सर्वत्र फैले हुए थे, किसी को भी सहसा प्रवेश नहीं करने देते थे। इसीलिये आश्रम के एकमात्र अधिवासी कण्व नामक ब्राह्मणी की तपस्या में कोई विघ्न उपस्थित न हुआ। पाँच वर्षों से ब्राह्मण की नारायण-अर्चना निर्बाध चल रही थी। कण्व जब शिशु थे, उस समय भी उनकी शैशव-क्रीडा में नारायण सने हुए थे। जब गृहस्थभार सँभाला, तब वहाँ भी प्रत्येक चेष्टा में नारायण भरे थे; और अब तो अवस्था ढल गयी थी। एकमात्र नारायण का ही अवलम्बन किये हुए ब्राह्मणदेव सर्वथा एकान्तसेवी होकर नारायण में लीन-से हो रहे थे। समीप का अरण्य जो कुछ भी कन्द-मूल-फल उन्हें देता, उसी को लेकर वे नारायण को अर्पित कर देते, अर्पित प्रसाद पाकर स्वयं भी तृप्त हो जाते। आश्रम से दस हाथ पर ही झर-झर करता हुआ एक जलस्त्रोत बहता था, वह कभी सूखता न था। अतः जल के लिये भी दूर जाने की आवश्यकता न थी। इससे पूर्व कण्व और तो कहीं नहीं, व्रजेश्वर नन्द के घर जाया करते थे। व्रजराज एवं व्रजरानी दोनों की ही कण्व के प्रति बड़ी श्रद्धा थी। दोनों अपने हृदय की बात कण्व को बताया करते। कण्व की गृहस्थी का निर्वाह भी व्रजेश्वर के द्वारा दिये हुए अयाचित दान पर ही अवलम्बित था, किंतु पाँच वर्ष हो गये, भजनानन्द में जगत को भूले हुए कण्व व्रजेश्वर के घर भी न गये। इसीलिये नन्दनन्दन के प्रकट होने की बात भी कण्व को ज्ञात नहीं। आज द्वादशी के दिन इष्टदेव पूजन के निमित्त पुष्पचयन एक कन्द-मूल आहरण करते हुए वे अचानक कालिन्दी तटपर-गोकुल के घाट पर आ निकले। वहाँ कुछ ग्वालिनें व्रजपुर की ओर से आयी हुई थीं, मधुपुरी जा रही थीं, परस्पर श्रीकृष्णचन्द्र की मनोहर बाल्यचेष्टाओं की चर्चा कर रही थीं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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