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व्रजेन्द्र नन्दन के बिम्बारुण अधरों पर विराजित वेणु की महामोहन स्वर लहरी से, गोप शिशुओं के कण्ठ से निस्सृत श्रीकृष्ण सुयश की सुमधुर तान से सम्पूर्ण वन-प्रान्तर मुखरित होने लगता है। वह असंख्य गो राशि भी प्रेमविह्वल हुई क्रमशः आगे बढ़ने लगती है। तथा उनके पीछे सखाओं से परिवेष्टित हुए बलराम के सहित नीलसुन्दर झूमते हुए चले जा रहे हैं वन-विहार के उद्देश्य से। रंग-बिरंगे राशि-राशि कुसुम समूहों से समलंकृत होकर, साथ ही गोसंचारण के सर्वथा उपयुक्त बनकर वृन्दा कानन भी उनके स्वागत के लिये प्रस्तुत है। द्रुम-वल्लरियों के अगणित तोरण निर्माण कर एकमात्र उनकी ही प्रतीक्षा कर रहा है वह, और यह लो, वृन्दावनेश्वर भी उसका अभिनन्दन स्वीकार करने ही तो पहुँचे।
- तन्माधवो वेणुमुदीरयन् वृतो गोपैर्गृणद्भिः स्वयशो बलान्वितः।
- पशून् पुरस्कृत्य पशव्यमाविशद् विहर्तुकामः कुसुमाकरं वनम्।।[1]
- बलजुत बेनु बजाय सुहावन।
- निज गौ गनत गोप सब पावन।।
- आगें करि गोधन सब ही के।
- वन प्रबेस किय भावत जी कें।।
- कुसुमाकर वन सुषमा धामू।
- तहाँ गए प्रभु विहरन कामू।।
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