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ग्वालिन ने प्रत्याशाभरी आँखों से व्रजरानी की ओर देखा। कदाचित कोई-सा कार्यभार वे मुझे पुनः सौंप दें, कुछ क्षण यहाँ और रुक जाने का मिस हो जाय, श्रीकृष्णचन्द्र का सौन्दर्य निहारकर मैं शीतल होती रहूँ- अन्तस्तल के ये आकुल भाव उसके नेत्रों की ओट से झाँक रहे थे। इधर रन्धनशाला के द्वार पर अवस्थित व्रजरानी भी सोच रही थीं-क्या करूँ? किसकी सहायता लूँ? रोहिणी जी तो समागत ब्राह्मणों की सेवा- सत्कार में लगी हैं, परिचारिकाएँ गोष्ठ से आये हुए दुग्धपूरित कलशों को यथास्थान रखने में अत्यन्त व्यस्त हैं, व्रजेश्वर नारायण सेवा में संलग्न हैं, शीघ्र ही भोग सामग्रियों को नारायण-मन्दिर में पहुँचा देने का आदेश भी आ चुका है, दधिमन्थन का कार्य अधूरा छोड़कर मैं उठ भी आयी; पर मेरा नीलमणि स्तन्यपान के लिये अन्चल पकड़े खड़ा है, स्तन्यपान के लिये मचल रहा है। इसे दूध पिलाकर, पुनः वस्त्र परिवर्तन कर मैं रन्धनशाला में तो चली जाऊँगी; किंतु इस आधे मथे दही से माखन तो निकला नहीं। विलम्ब होने पर तो निकलेगा ही नहीं। फिर पद्मगन्धा कजरी के दूध का सद्योमथित नवनीत आज मैं अपने नीलमणि को कैसे दे पाऊँगी? अच्छा, इस ग्वालिन से बिलोने को कह दूँ क्या......................? बस, हृदय की ये चंचल धाराएँ अज्ञात चेतना के धरातल पर जा मिलीं, व्रजरानी उस गोपसुन्दरी की ओर दृष्टि फेरकर कह ही तो उठीं-
- पाहुनी, करि दै तनक मह्यौ
- हौं लागी गृह-काज-रसोई, जसुमति विनय कह्यौ।
- आरि करत मनमोहन मेरौ, अंचल आनि गह्यौ।।
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