श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
चञ्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
उत्तर- वहाँ अर्जुन ने ‘समत्व’ योग की स्थिर स्थिति में मन की चंचलता को बाधक बतलाया था, इससे स्वाभाविक ही उनसे कहा जा सकता था कि ‘मन को वश में कर लो, चंचलता दूर हो जायगी’; परन्तु अर्जुन मन को वश में करना अत्यन्त कठिन समझते हैं, इसीलिये उन्होंने यहाँ पुनः मन को चंचल बतलाया है। प्रश्न- ‘मन’ के साथ ‘प्रमाथि’ विशेषण देने का क्या कारण है? उत्तर- इससे अर्जुन कहते हैं कि मन दीपशिखा की भाँति चंचल तो है ही, परंतु मथानी के सदृश प्रमथनशील भी है। जैसे दूध-दही को मथानी मथ डालती है, वैसे ही मन भी शरीर और इन्द्रियों को बिलकुल क्षुब्ध कर देता है। प्रश्न- दूसरे अध्याय के साठवें श्लोक में इन्द्रियों को प्रमथनशील बतलाया है, यहाँ मन को बतलाते हैं। इसका क्या कारण है? उत्तर- विषयों के संग से दोनों ही एक-दूसरे को क्षुब्ध करने वाले हैं और दोनों मिलकर तो बुद्धि को भी क्षुब्ध कर डालते हैं।[1] इसीलिये दोनों को ‘प्रमाथी’ कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2। 67
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