श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
39. ग्रहण-यात्रा
ऐसा सूर्यग्रहण जीवन में दो बार तो नहीं आने वाला है और सूर्यग्रहण में स्नान का तीर्थ है कुरुक्षेत्र का समन्तक पच्चक तीर्थ। भगवान परशुराम ने जहाँ निःक्षत्रिय पृथ्वी करने के पश्चात यज्ञ किया प्रायश्चित्त स्वरूप। भारत में सभी प्रदेशों के लोग, सभी वर्णों के लोग, नरेश और भिक्षुक सब पहिले से ही ग्रहण-स्नान के लिए कुरुक्षेत्र पहुँचने लगे। ऐसे पर्वों पर उपयुक्त स्थान पाने के लिए पहिले पहुँचना आवश्यक होता है। नरेशों तथा सम्पन्न लोगों का एक सुविधा रहती है। उनके तीर्थ-पुरोहित[1] पहिले से ही यजमानों के ठहरने के लिए उपयुक्त व्यवस्था कर रखते हैं। कुरुक्षेत्र में यह व्यवस्था अब भी होती है। उस समय तो बहुत व्यापक हुई थी, क्योंकि सभी राजाओं की ससैन्य-सपरिवार आना था। वैशाख मास की अमावस्या को यह ग्रहण था। तीर्थ पुरोहितों में जो अधिक प्रभावशाली थे, उन्होंने सघन वृक्षों के आस पास की भूमि अपने उत्तम यजमानों के लिए सुरक्षित कर रखी थी। द्वारिका से महाराज उग्रसेन, वसुदेव जी, अक्रूर प्रभृति सभी यदुवृद्ध सपरिवार चले। श्रीकृष्ण बलराम अपनी महारानियों, पुत्रों, पौत्रों आदि के साथ रथों पर बैठे। महासेनापति अनाधृष्ट, सेनापति कृतवर्मा, सात्यकि और अनिरुद्ध के नेतृत्व में श्रीद्वारिकाधीश का यह पूरा समाज- यादव शूर सैनिकों के संरक्षण में चला। बहुत पहिले पहुँचने की श्रीकृष्णचन्द्र को शीघ्रता नहीं थी। उनके तीर्थ पुरोहित ने द्वारिका के सम्पूर्ण समाज के लिए उत्तम स्थान की उपयुक्त व्यवस्था कर रखी थी। वे लोग ग्रहण-सूतक प्रारम्भ होने के दिन ही पहुँचे। ऐसे पहुँचे कि आवास की व्यवस्था की और ग्रहण-स्नान को निकल पड़े। ग्रहण का प्रथम स्नान करके सब ग्रहण-कालीन जप, पाठ, दान में लग गये। वृक्षों के नीचे छाया में सबके परिवार पृथक-पृथक उतरे और सब पूरे उत्साह से दान-यज्ञादि करने में लगे थे। वह कोसों तक का क्षेत्र पाठ, पूजन, यज्ञ, ध्यान, दान में लगे लोगों से भरा था। असंख्य मानव-समुदाय-बहुत भारी भीड़ और संघ धर्मकृत्यों में लगे सात्त्विक। ऐसा दृश्य, ऐसा वातावरण केवल पृथ्वी पर और वह भी केवल भारतवर्ष में देखा जा सकता है। वह द्वापरान्त था- उस समय ऐसे अवसर पर तस्कर भी निष्पाप होकर पुण्य कर्म में ही लगते थे। ग्रहण का मध्य स्नान और अन्त में ग्रहण-मोक्ष होने पर अन्तिम स्नान करके सब द्विजातियों ने यज्ञोपवीत परिवर्तन किया। अब वास्तविक यज्ञ-दान तथा ब्राह्मणों को भोजन कराने का अवसर आया क्योंकि ग्रहण-काल में तो केवल अन्त्यज ही दान लिया करते हैं। ऋषि - मुनि - तपस्वीगण आये थे। प्रायः सभी प्रसिद्ध महर्षि पधारे थे। श्रीकृष्णचन्द्र का आमन्त्रण पाकर भला कौन नहीं आता उनके शिविर में। जो वीतराग, अपरिग्रही थे, वे भी श्रीकृष्ण का दान अपनी शुद्धि में सहायक मानते थे, दूसरे जो प्रतिग्रह ले सकते थे, वे तो आने ही। अन्न, वस्त्र, गायें, धन- यादवों ने, उनकी महिलाओं ने उदार मन से दान कीं। इतना दान कि दूसरे नरेशों के लिए प्रतिग्रहकर्ता मिलने कठिन हो गये ; 'द्वारिका के शिविर में- श्रीद्वारिकाधीश के शिविर में।’ भिक्षुकों के लिए, ब्राह्मणों के लिए, विद्याजीवियों के लिए एकमात्र आकर्षण का केन्द्र था वह शिविर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पण्डे
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