श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
40. ब्रजजन-मिलन
'बाबा आये हैं।' श्रीबलराम छोटे भाई से सटकर बैठते हुए बोले- 'मैया हैं, सखा हैं और सब व्रजजन हैं। श्रीकीर्तिकुमारी भी हैं, यह संकोच के कारण नहीं कहा गया। 'कहाँ हैं दादा!' श्रीकृष्ण ऐसे उठे जैसे शिविर के भीतर आ गये हों वे सब लोग, और उनसे दौड़कर मिलना है। 'मैंने दारुक को कह दिया था। तुम्हारा रथ बाहर प्रस्तुत है।' बड़े भाई को पता है कि यह समाचार पाकर उनके अनुज की क्या अवस्था होगी। दोनों भाई एक ही रथ में बैठने चल पड़े। श्रीव्रजराज आये कुरुक्षेत्र और आते ही उन्होंने पता लगाया कि द्वारिका से कोई आया है या नहीं। व्रज में तो सबके प्राण अटके हैं श्रीकृष्ण में। श्रीकृष्णचन्द्र मिलेंगे इस अवसर पर, ऐसी आशा न होती, ग्रहण-स्नान का पुण्य प्राप्त करने की वहाँ किसको पड़ी थी। 'सब आये हैं; किन्तु अभी तो सब लगे होंगे स्नान-दान में।' तीर्थ-पुरोहित की बात ठीक थी; इतने बड़े मेले में स्नान के समय तो किसी को पाना कठिन था। व्रज के लोगों ने भी ग्रहण-स्नान किया, जप दान किया और भरपूर दान दिया। उन सब की एक ही कामना- 'उनके राम-श्याम सदा सकुशल, सानन्द रहें।' लोग स्नान-यज्ञादि से निवृत हुए और व्रजपति के छकड़े चल पड़े। मेले की अपार भीड़- छकड़ों को स्वभावतः बहुत मन्द गति से चलना पड़ा। हृदय की उत्कण्ठा का साथ तो वे तब भी नहीं दे पाते जब पूरी गति से दौड़ते हैं। 'श्रीव्रजराज आये।' द्वारिका के शिविर में उत्साह की लहर फैल गयी। एक साथ सब उठ खड़े हुए। सब जैसे थे वैसे ही दौड़ पड़े दूर से आते छकड़े दीख गये थे और ये ऐरावत के बच्चों के समान व्रज के छकड़ों में जुते वृषभ- ये तो पूरे मेले के गजों से भी अधिक आकर्षक लगे थे लोगों को। जिधर से यह छकड़ों की पंक्ति निकली- राजा भी चकित रह गये थे व्रजपति का वैभव देखकर। 'श्रीव्रजराज आये।' श्रीकृष्णचन्द्र बड़े भाई के साथ रथ पर बैठने ही जा रहे थे कि उन्होंने कोलाहल सुना और दोनों भाई पैदल ही दौड़ पड़े। 'बाबा!' दोनों एक साथ दौड़े और छकड़े से उतरते उतरते बाबा के चरणों में लिपट गये। श्रीनन्दराय ने दोनों को उठाकर छाती से लिपटा लिया। दोनों के अश्रु से बाबा का वक्ष भीगता रहा और दोनों की अलकें बाबा के नेत्र-जल से आर्द्र हो गयीं। देर तक कोई एक शब्द नहीं बोल सका। बाबा ने ही अपने को सम्हाला। 'मैया!' दोनों भाइयों ने पूरी बात भी नहीं सुनी। दोनों मैया के छड़के की ओर दौड़ गये। अब श्रीनन्दराय जी से मिलने महाराज उग्रसेन बढ़े। व्रजपति भेंट दें- प्रणति करें- इससे पूर्व महाराज ने अंक में भर लिया- 'आपका उग्रसेन जन्म-जन्म तक ऋणी रहेगा। आप इसे लज्जित मत करें।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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