श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
22. काशी-दहन
राजभवन में समाचार गया। लोग सन्दिग्ध हो उठे थे- 'मस्तक तो अपने महाराज का हो, ऐसा ही लगता है; किन्तु...........।' 'पिता युद्ध में गये थे और युद्ध में तो कुछ भी हो सकता है।' काशी-नरेश के युवराज सुदक्षिण समाचार मिलते ही द्वार पर आये और देखते ही पहिचानकर गिर पड़े- 'हा पिता!' रानियाँ, पुत्र, मन्त्रीगण तथा प्रजा के लोग दुःखी थे। रुदन ही तो मनुष्य के हाथ में रह जाता है किसी भी स्वजन के न रहने पर। युवराज सुदक्षिण तत्काल जो सेना उपलब्ध थी, उसे लेकर चल पड़े; किन्तु युद्ध भूमि में जब शव भी सम्पूर्ण कहाँ थे। श्रृगाल, कुत्ते, गीधों का जमघट जुड़ा था वहाँ। किसी प्रकार पिता का शव ढूँढ़ा जा सका। उसे लेकर वे लौटे और पिता की उत्तर क्रिया करने में लग गये। विधिपूर्वक त्रयोदशाह सम्पन्न किया उन्होंने। 'महाराज दिवंगत हुए! महाराज की जय।' -यह अद्भुत प्रणाली रही है सुदीर्घ काल से प्रायः सभी देशों में राजसिंहासन की। राजा के मरने और नवीन राजा के राज्याभिषेक-समारोह का समाचार प्रायः साथ दे दिया जाता है। भले मृतराजा का शोक महीनों मनाया जाय, भले सविधि अभिषेक बहुत पीछे किया जाय; किन्तु शासन का सिंहासन सूना नहीं रखा जा सकता। एक नरेश की मृत्यु-समाचार के साथ ही उत्तराधिकारी की घोषणा करनी पड़ती है। काशी में उत्तराधिकारी की घोषणा नहीं होनी थी। युद्ध में जाने से पूर्व काशी-नरेश ने अपने ज्येष्ठ पुत्र सुदक्षिण को शासन-सौंप दिया था और वे शासन का संचालन कर रहे थे। पिता का और्ध्वदैहिक कृत्य सम्पन्न करके उन्होंने घोषणा कर दी- 'मैं सबसे पहिले पितृहन्ता को मार कर पिता के वध का बदला लेकर तब कोई दूसरा काम करूँगा।' युद्ध करने जो स्वयं गया, वह हारेगा या जीतेगा। उसकी मृत्यु अथवा पराजय का प्रतिशोध क्या; किन्तु अन्धी ममता यह नहीं देखती। सुदक्षिणा के वश की बात नहीं थी द्वारिका पर चढ़ायी करना। श्रीद्वारिकाधीश से प्रतिशोध लेने की शक्ति तो सुरों में भी नहीं थी। सुदक्षिण ने अपने विद्वान पुरोहितों को बुलाया और भगवान विश्वनाथ की सविधि अर्चा प्रारम्भ कर दी। वैदिक विधि की सम्पूर्णता, सम्यक श्रद्धा, सम्पूर्ण विश्वास, दृढ़ निश्चय और कठिन संयम के साथ परम एकाग्रता थी सुदक्षिण में। वह भूख-प्यास, विश्राम सब भूलकर रुद्रार्चन में लगा था। भगवान शंकर का प्रिय क्षेत्र वाराणसी- उस अविमुक्त धाम का दिव्य प्रभाव- विश्वनाथ ही अपनी पुरी की महिमा नहीं बचावेंगे तो वह महिमा रहेगी? सुदक्षिणा की आराधना सफल हुई। भगवान घूर्जटि प्रकट हो गये और उन आशुतोष ने वरदान माँगने को कहा। 'मेरे पिता को जिसने मारा है, उसके वध का उपाय प्रदान करें मुझे। सुदक्षिण उस पितृहन्ता की मृत्यु माँग सकता था; किन्तु मृत्यु नहीं, वध अभीष्ट था उसे। उसका द्वेष, पिता के वध का प्रतिशोध वध करके ही पूरा होता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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