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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
1. गीता के प्रत्येक अध्याय का तात्पर्य
पहला अध्यायमोह के कारण ही मनुष्य ‘मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँ’- इस दुविधा में फँसकर कर्तव्य-च्युत हो जाता है। अगर वह मोह के वशीभूत न हो तो वह कर्तव्य-च्युत नहीं हो सकता। भगवान्, धर्म, परलोक आदि पर श्रद्धा रखने वाले मनुष्यों के भीतर प्रायः इन बातों को लेकर हलचल, दुविधा रहती है कि अगर हम कर्तव्य रूप से प्राप्त कर्म को नहीं करेंगे तो हमारा पतन हो जायेगा; अगर हम केवल सांसारिक कार्य में ही लग जाएंगे तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होगी; व्यवहार में लगने से परमार्थ ठीक नहीं होगा और परमार्थ में लगने से व्यवहार ठीक नहीं होगा; अगर हम कुटुम्ब को छोड़ देंगे तो हमें पाप लगेगा और अगर कुटुम्ब में ही बैठे रहेंगे तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होगी; आदि-आदि। तात्पर्य है कि अपना कल्याण तो चाहते हैं, पर मोह, सुकासक्ति के कारण संसार छूटता नहीं। इसी तरह की हलचल अर्जुन के मन में भी होती है कि अगर मैं युद्ध करूँगा तो कुल का नाश होने से मेरे कल्याण में बाधा लगेगी; और अगर मैं युद्ध नहीं करूँगा तो कर्तव्यच्युत होने से मेरे कल्याण में बाधा लगेगी। |
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