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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
6. गीता में मूर्ति-पूजा
हमारे सनातन वैदिक सिद्धांत में भक्त लोग मूर्ति का पूजन नहीं करते, प्रत्युत परमात्मा ही पूजन करते हैं। तात्पर्य है कि जो परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है, उसका विशेष ख्याल करने के लिए मूर्ति बनाकर उस मूर्ति में उस परमात्मा का पूजन करते हैं, जिससे सुगमतापूर्वक परमात्मा का ध्यान चिंतन होता रहे। अगर मूर्ति की ही पूजा होती है तो पूजक के भीतर पत्थर की मूर्ति का ही भाव होना चाहिए कि ‘तुम अमुक पर्वत से निकले हो, अमुक व्यक्ति ने तुमको बनाया है, अमुक व्यक्ति ने तुमको यहाँ लाकर रखा है; अतः हे पत्थरदेव! तुम मेरा कल्याण करो।’ परंतु ऐसा कोई कहता ही नहीं, तो फिर मूर्तिपूजा कहाँ हुई? अतः भक्त लोग मूर्ति की पूजा नहीं करते; किंतु मूर्ति में भगवान् की पूजा करते हैं अर्थात् मूर्तिभाव मिटाकर भगवद्भाव करते हैं। इस प्रकार मूर्ति में भगवान् का पूजन करने से सब जगह भगवद्भाव हो जाता है। भगवत्पूजन से भगवान् की भक्ति का आरंभ होता है। भक्त के सिद्ध हो जाने पर भी भगवत्पूजन होता ही रहता है। मूर्ति में अपनी पूजा के विषय में भगवान् ने गीता में कहा है कि ‘भक्तलोग भक्तिपूर्वक मेरे को नमस्कार करते हुए मेरी उपासना करते हैं’;[1] ‘जो भक्त श्रद्धा प्रेमपूर्वक पत्र, पुष्प, फल, जल आदि मेरे अर्पण करता है, उसके दिए हुए उपहार को मैं खा लेता हूँ’;[2] देवताओं (विष्णु, शिव, शक्ति, गणेश और सूर्य- ये ईश्वरोटि के पञ्च देवता), ब्राह्मणों, आचार्य, माता-पिता आदि बड़े-बूढ़ों और ज्ञानी जीवन्मुक्त महात्माओं का पूजन करना शारीरिक तप है[3] अगर सामने मूर्ति न हो तो किसको नमस्कार किया जाएगा? किसको पत्र, पुष्प, फल, जल आदि चढ़ाये जाएंगे और किसका पूजन किया जाएगा? इससे यही सिद्ध होता है कि गीता में मूर्तिपूजा की बात भी आयी है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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