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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
75. गीता में सिद्धों के लक्षण
'कर्मयोग' कामना (फलेच्छा) के त्याग से आरम्भ होता है[1] और कामना के सर्वथा त्याग में ही समाप्त होता है[2] अत: कर्म योग में कामना के त्याग की बात रहती है। 'ज्ञानयोग' असत्-सत्, प्रकृति-पुरुष, क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ के विवेक से आरम्भ होता है[3] और असत् से सर्वथा सम्बंध-विच्छेद में ही स्मागत होता है।[4] अत: ज्ञानयोग में असत् सत् का विवेक मुख्य रहता है। 'भक्तियोग' भगवान की परायणता से आरम्भ होता है[5] और भगवत्परायणता में ही समाप्त होता है।[6] अत: भक्तियोग में भगवत्परायणता मुख्य रहती है। उपर्युक्त तीनों योग जिससे आरम्भ होते हैं, उसी में उनकी पूर्णता होती है। अत: गीता में जहाँ कर्मयोग से सिद्ध महापुरुषों का वर्णन आया है,[7] वहाँ कर्मयोगी साधकों का भी वर्णन आया है,[8] जहाँ ज्ञानयोग से सिद्ध महापुरुषों का वर्णन आया है,[9] उससे पहले ज्ञानयोगी साधकों का वर्णन आया है[10] ऐसे ही जहाँ भक्तियोग से सिद्ध महापुरुषों का वर्णन आया है,[11] उससे पहले भक्तियोगी साधकों का वर्णन आया है।[12] साधनावस्था में कर्मयोगी की कर्म करने में ज्यादा प्रवृत्ति रहती है; अत: सिद्धावस्था में भी उसकी कर्मो में स्वाभाविक प्रवृत्ति रहती है। इसलिए कर्मयोग से सिद्ध महापुरुषों के लक्षणों में उदासीनता का वर्णन नहीं आया।[13] ज्ञानयोगी असत् का त्याग करके अपने स्वरूप में स्थित रहता है; अतः उसकी संसार से स्वाभाविक उदासीनता रहती है।[14] भक्तियोगी का भगवान् में प्रेम होने से वह संसार से उदासीन हो जाता है[15] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (2।48)
- ↑ (2।55)
- ↑ (13।19)
- ↑ (13।34)
- ↑ (12।6)
- ↑ (12।14)
- ↑ (2।55-72)
- ↑ (2।49,64-65 आदि)
- ↑ (14।22-25)
- ↑ (14।19-20)
- ↑ (12।13-19)
- ↑ (12।6-10)
- ↑ (6।7-9)
- ↑ (14।23)
- ↑ (12।16)
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