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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
86. गीता में आये समान चरणों का तात्पर्य
1. ‘सेनयोरुभयोर्मध्ये’[1]- एक बार तो अर्जुन ने भगवान से अपना रथ दोनों सेनाओं के मध्यभाग में खड़ा करने के लिए कहा,[2] एक बार भगवान् ने दोनों सेनाओं के बीच में रथ खड़ा कर दिया।[3] और एक बार वहीं (दोनों सेनाओं के बीच में) अर्जुन को उपदेश दिया।[4] इस प्रकार तीन तरह की परिस्थितियाँ हुईं। रथ खड़ा करो- ऐसा कहते समय अर्जुन का भाव और ही था अर्थात् वे अपने को रथी और भगवान् को सारथि मानते थे दोनों सेनाओं के बीच में रथ खड़ा करके भगवान् ने कहा कि इन कुरुवंशियों को देखो तो अर्जुन का भाव और ही हुआ अर्थात् उनमें कौटुम्बिक मोह जाग्रत हो गया; और भगवान् ने उपदेश दिया तो अर्जुन का भाव और ही हुआ अर्थात् वे शिष्यभाव से उपदेश सुनने लगे। 2. ‘कुलक्षयकृतं दोषम्’[5]- ये पद कुल का नाश करने से होने वाले दोष को न देखने और देखने के अर्थ में आये हैं। जिन मनुष्यों पर लोभ सवार हो जाता है और लोभ के कारण जिनका कर्तव्य अकर्तव्य का विवेक ढक जाता है, वे अपने व्यवहार में होने वाले दोषों को नहीं जानते। परंतु जो लोभ के वशीभूत नहीं हैं और जिनमें कर्तव्य-अकर्तव्य का, धर्म-अधर्म का विवेक है, वे अपने व्यवहार में होने वाले दोषों को अच्छी तरह जानते हैं। दुर्योधन आदि पर राज्य का लोभ छाया हुआ होने से वे कुल के नाश से होने वाले दोषों को नहीं देख रहे थे; परंतु पाण्डवों पर राज्य का लोभ नहीं छाया हुआ न होने से वे कुल के नाश से होने वाले दोषों को स्पष्ट देख रहे थे। तात्पर्य है कि मनुष्य को कभी लोभ के वशीभूत नहीं होना चाहिए। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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