पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
16. राजसूय यज्ञ का प्रस्ताव
देवर्षि नारद के द्वारा युधिष्ठिर को अपने स्वर्गीय पिता का सन्देश प्राप्त हुआ कि वे राजसूय यज्ञ करें। स्वर्ग में महाराज हरिश्चन्द्र का सम्मान तथा ऐश्वर्य देखकर पाण्डु चकित हो गये और उस भोगलोक का ऐश्वर्य तो धरा के पुण्य कर्मों का प्रतिफल होता है। हरिश्चन्द्र ने पृथ्वी पर राजसूय यज्ञ करके वह स्वर्गीय सम्मान अर्जित किया है, यह जानकर महाराज पाण्डु के मन में भी स्पृहा जागी थी। उन्होंने कहलाया था- ‘युधिष्ठिर ! तुम मेरे पुत्र हो। तुम राजसूय करोगे तो तुम्हें तो यहाँ आने पर वह अद्भुत सम्मान मिलेगा ही, तुम्हारा पिता होने के कारण मैं तत्काल यहाँ प्रतिष्ठा कर लूँगा। तुम्हारे भाई समर्थ हैं तथा तुम्हारे वशवर्ती हैं, अत: सम्पूर्ण पृथ्वी जीतकर तुम मेरे लिए राजसूय यज्ञ करके सम्राट पद प्राप्त करो।[1] पिता का सन्देश प्राप्त करके युधिष्ठिर के मन में कामना तो नहीं जागी; किन्तु कर्तव्य की प्रेरणा हुई कि उन्हें प्रयत्न करना चाहिए। उन्होंने पहिला कार्य किया कि ‘अपने राज्य में जितने भी ऋण-ग्रस्त लोग हैं, उनका ऋण राज्य की ओर से दिया जाय। किसी ने किसी भी उचित या अनुचित हेतु से ऋण लिया हो, उस पर कोई कर्मचारी रोष व्यक्त न करे और न ऋण देने के कारण अभिमान प्रकट करे।’[2] यह घोषणा कर दी। इस महानतम कार्य के कारण महाराज युधिष्ठिर अतिशय लोकप्रिय हो गये। सर्वत्र उनकी प्रशंसा होने लगी। भीमसेन प्रजा की रक्षा के लिए, अर्जुन शत्रु-संहार के लिए, सहदेव शासन संचालन के लिए और स्वभाव से विनम्र नकुल स्वागत-सत्कार से नियुक्त कर दिये गये थे। फलत: यज्ञ शक्ति, कृषि, गोपालन तथा व्यापार अपनी चर्मोन्नति को प्राप्त हो गया। रोग, अग्नि तथा ठग, लुटेरे एवं धृष्ट राज कर्मचारियों का आतंक उन्मूलित हो गया। प्रजा में किसी भी प्रकार का असत्य या कपट व्यवहार असंभव हो गया। प्रजा समृद्ध हो गयी। दूसरे राज्यों के समृद्ध व्यापारी स्वेच्छापूर्वक धर्मराज को सेवा, कर-दान ही नहीं संधि-विग्रह जैसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में सहयोग देने लगे। इसके परिणास्वरूप समीप की प्रजा को उत्पीड़ित करने वाले नरेशों का उच्छेद ही हो गया। अत्यल्प प्रयास से उनका राज्य धर्मराज के राज्य का अंग बन गया। यह सब हुआ; किन्तु राजसूय यज्ञ के लिए तो यह पर्याप्त नहीं था। सम्पूर्ण पृथ्वी का सम्राट वह हो सकता था, जो सभी राजाओं को प्रेम या बल से इसके लिए प्रस्तुत कर सके। युधिष्ठिर ने पहले अपने भाइयों तथा मन्त्रियों से विचार किया। फिर कुल पुरोहित महर्षि धौम्य एवं भगवान वेदव्यास से सम्मत्ति ली। सब इस विषय में एकमत थे कि युधिष्ठिर राजसूय करने में समर्थ हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मय द्वारा राज सभा के निर्माण तथा राजसूय यज्ञ में समय का पर्याप्त अन्तर है। इस अन्तर में अर्जुन बारह वर्ष निर्वासित जीवन व्यतीत कर चुके थे और सुभद्रा के साथ विवाह कर चुके थे।
- ↑ कोई अपने नाम से नवीन संवत्सर चलाना चाहे तो नियम ही यह था कि वह राज्य के सम्पूर्ण लोगों का ऋण चुका दे। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ से सम्राट पद प्राप्ति के दिन से इसलिए उनके नाम का संवत्सर चला।
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