महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
36.भीम और हनुमान
भीमसेन की असुर स्त्री हिडिंबा का पुत्र घटोत्कच भी समय-समय पर आकर उन सबकी सहायता करता रहता था। द्रौपदी सहित पांडव हिमालय के दृश्य निहारते हुए जा रहे थे कि एक बार उनको एक भयावने जंगल से होकर जाना पड़ा। रास्ता बहुत ही कठिन था। मार्ग में द्रौपदी को तकलीफें उठाते देख युधिष्ठिर का जी भर आया। वह भीमसेन से बोले- "भाई भीम, द्रौपदी से इस रास्ते नहीं चला जायेगा। इसलिए लोमश ऋषि के साथ मैं और नकुल तो आगे बढ़ते हैं और तुम व सहदेव द्रौपदी को लेकर गंगा के मुहाने पर जाकर रहो। जब तक हम तीनों लौट न आयें, द्रौपदी की सावधानी के साथ रक्षा करते हुए तुम वहीं रहना।" किन्तु भीमसेन न माना। वह बोला- "महाराज! एक तो द्रौपदी कभी इस बात पर राजी न होगी दूसरे, जब एक अर्जुन के विछोह का आपको इतना दु:ख है तो मुझे, सहदेव को और द्रौपदी को देखे बगैर आपसे कैसे रहा जायेगा? फिर राक्षसों और हिंस्त्र जन्तुओं से भरे इस भीषण वन में आपको अकेला छोड जाने को भी मैं कभी राजी नहीं होऊंगा। इसलिए हम सब साथ ही चलेंगे। अगर कहीं द्रौपदी को चलने में कठिनाई मालूम होगी तो मैं उसे अपने कन्धों पर बिठाकर ले चलूंगा। नकुल और सहदेव को भी मैं उठा ले चलूंगा। आप उनकी चिन्ता न करें।" भीमसेन की बातों से युधिष्ठिर हर्ष से फूल उठे। उन्होंने भीम को छाती से लगा लिया और आशीर्वाद दिया- "भगवान करें, तुम्हारा शारीरिक बल हर घड़ी बढ़ता ही जाये।" इतने में द्रौपदी मुस्कराती हुई युधिष्ठिर से बोली- "आप मेरी चिन्ता न करें। मुझे उठाकर ले चलने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी। मैं अच्छी तरह चल सकती हूँ।" उत्तर-पूरब से मलयानिल मन्द गति से बह रहा था। सुहावना मौसम था। द्रौपदी आश्रम के बाहर खड़ी मौसम की बहार ले रही थी। इतने में एक सुन्दर फूल हवा में उड़ता हुआ उसके पास आ गिरा। द्रौपदी ने उसे उठा लिया और वह उसकी महक और सौंदर्य पर मुग्ध हो गई। ऐसे ही कुछ और फूल पाने के लिए उसका जी मचल उठा। भीमसेन के पास जाकर बोली- "भीम, देखा तुमने! कैसा कोमल और सुन्दर फूल है यह! कैसी मनोहर सुगन्ध है इसमें! कैसी इसकी निकाई है। यह फूल मैं महाराज को भेंट करूंगी। तुम जाकर ऐसे ही कुछ और फूल ला सकोगे? काम्यकवन में हम इसी फूल का पौधा लगायेंगे।" यह कहती द्रौपदी हाथ में फूल लिये युधिष्ठिर के पास दौड़ी गई।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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