महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
49.मंत्रणा
हथियार लेकर लड़नेवाले शत्रु को मारना भी कहीं पाप होता है? कभी नहीं। शत्रुओं के आगे हाथ पसारकर भीख मांगने से अधिक निंदनीय काम और कोई हो ही नहीं सकता। अध:पतन के सिवाय उसका और कोई नतीजा नहीं होता। अगर दुर्योधन लड़ना ही चाहता है तो हम भी तैयार हो जायें। देरी करना ठीक नहीं। जो कुछ करना है, उसे जल्दी ही कर लेना ठीक होगा। मेरी राय में दुर्योधन बगैर युद्ध के मानेगा ही नहीं। इसलिये विलम्ब करना हमारे लिये बिलकुल नासमझी की बात होगी।" सात्यकि की इन दृढ़तापूर्ण और जोरदार बातों से राजा द्रुपद बड़े खुश हुए। वह उठे और बोले- "सात्यकि ने जो कहा वह बिलकुल सही है। मैं उनका जोरों से समर्थन करता हूँ। मेरा भी यह खयाल है कि दुर्योधन मीठी-मीठी बातों से माननेवाला नहीं है। हमें युद्ध की तैयारियां तो रखनी ही चाहिए। अपने सभी मित्रों को दूतों के द्वारा संदेश भेजना होगा कि बिना विलम्ब किये सेना इकट्ठी करना शुरू कर दें। शल्य, धृष्टकेतु, जयत्सेन, केकय आदि राजाओं के पास अभी से दूत भेज देने चाहिए। इससे मतलब यह नहीं है सुलह का प्रयत्न ही न किया जाये, बल्कि मेरी राय में तो राजा धृतराष्ट्र के पास अभी से किसी सुयोग्य व्यक्ति को दूत बनाकर भेजना बहुत ही जरूरी है। मेरी सभा के विद्वान पुरोहित बड़े नीतिज्ञ ब्राह्मण हैं। आप चाहे तो उन्हें हस्तिनापुर भेज सकते हैं। दुर्योधन से क्या कुछ कहना होगा, भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रोण आदि व्यक्तियों को कैसे मनवाना होगा, वह सब बातें उन ब्राह्मण को समझाकर उन्हें हस्तिनापुर भेजा जा सकता है। मेरी यही सलाह है।" राजा द्रुपद के कह चुकने के बाद श्रीकृष्ण उठे और बोले- "सज्जनो! पांचाल राज ने जो सलाह दी है वह बिलकुल ठीक है। वह राजनीति के भी अनुकूल है और उसी पर अमल करना चाहिए। भैया बलराम जी और मुझ पर कौरवों का जितना हक है, उतना ही पांडवों का भी है। हम यहाँ किसी का पक्षपात करने नहीं, बल्कि उत्तरा के विवाह में शामिल होने के लिये आये हैं। हम अब अपने स्थान पर वापस चले जायेंगे। (द्रुपद की ओर देखकर) द्रुपदराज! आप सभी राजाओं में श्रेष्ठ हैं, बुद्धि एवं आयु में भी बड़े हैं। हमारे लिये तो आप आचार्य के समान हैं। धृतराष्ट्र भी आपकी बड़ी इज्जत करते हैं। द्रोण और कृपाचार्य तो आपके लड़कपन के साथी हैं। इसलिये उचित तो यही होगा कि जो कुछ दूत को समझाना-बुझाना हो, वह आप ही समझा दें और उन्हें हस्तिनापुर भेज दें। यदि इसके बाद भी दुर्योधन न्यायोचित रूप से संधि के लिये तैयार न हो तो सब लोग सब तरह से तैयार हो जायें और हमें भी कहला भेजें।" यह निश्चय हो जाने के बाद श्रीकष्ण अपने साथियों सहित द्वारका लौट गये। विराट, द्रुपद, युधिष्ठिर आदि युद्ध की तैयारियां करने में लग गये। चारों ओर दूत भेजे गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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