महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
98.शोक और सांत्वना
पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को धर्म का मर्म समझाया। युधिष्ठिर को भीष्म पितामह ने जो उपदेश दिया वह महाभारत के शांतिपर्व में है। इस महाग्रंथ का यह एक सुविख्यात भाग है और अपने में सम्पूर्ण शास्त्र है। युधिष्ठिर को उपदेश देने के बाद भीष्म पितामह ने शरीर त्यागा। परम्परागत प्रथा के अनुसार युधिष्ठिर ने गंगा में भीष्म पितामह को जल तर्पण किया। तर्पण के बाद जैसे ही वह जल से निकले और किनारे पर आये कि उनके मन में अतीत की घटनाओं का स्मरण हो आया। वह फिर शोक-विह्वल हो उठे और धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़े, जैसे शिकारी के बाण लगने पर हाथी गिरता है। भीमसेन ने उनको तुरन्त उठाकर छाती से लगा लिया और सांत्वना व शांति की बातें कहकर बहुत आश्वासन दिया। धृतराष्ट्र भी युधिष्ठिर के पास आकर सांत्वना देते हुए बोले- "बेटा, तुम्हें इस तरह शोक-विह्वल नहीं होना चाहिए। चलो उठो। अपने बंधुओं और मित्रों के साथ राज्य का शासन करना ही तुम्हारा कर्तव्य है। शोक तो मुझे और गांधारी को करना चाहिए। तुमने तो क्षत्रियोचित धर्म का पालन करते हुए विजय प्राप्त की है। अब तुम्हें विजेता के योग्य कर्तव्यों का भी पालन करना होगा। अपनी नासमझी से मैंने भैया विदुर की सलाह न मानी उसी का यह घोर परिणाम हुआ है। दुर्योधन ने जो मूर्खताएं कीं उनको सही समझकर मैंने धोखा खाया। इस कारण मेरे सौ-के-सौ पुत्र उसी भाँति काल-कवलित हो गये जैसे सपने में मिला धन नींद खुलने पर लोप हो जाता है। अब तुम्हीं मेरे पुत्र हो। इस कारण तुम्हें दुःखी न होना चाहिए।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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