श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 1-14

अष्टम स्कन्ध: चतुर्थोऽध्याय: अध्याय

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


गज और ग्राह का पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! उस समय ब्रह्मा, शंकर आदि देवता, ऋषि और गन्धर्व श्रीहरि भगवान के इस कर्म की प्रशंसा करने लगे तथा उनके ऊपर फूलों की वर्षा करने लगे। स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बजने लगीं, गन्धर्व नाचने-गाने लगे, ऋषि, चारण और सिद्धगण भगवान पुरुषोत्तम की स्तुति करने लगे।

इधर वह ग्राह तुरंत ही परमआश्चर्य दिव्य शरीर से सम्पन्न हो गया। यह ग्राह इसके पहले ‘हूहू’ नाम का एक श्रेष्ठ गन्धर्व था। देवल के शाप से उसे यह गति प्राप्त हुई थी। अब भगवान की कृपा से वह मुक्त हो गया। उसने सर्वेश्वर भगवान के श्रीचरणों में सिर रखकर प्रणाम किया, इसके बाद वह भगवान के सुयश का गान करने लगा। वास्तव में अविनाशी भगवान ही सर्वश्रेष्ठ कीर्ति से सम्पन्न हैं। उन्हीं के गुण और मनोहर लीलाएँ गान करने योग्य हैं। भगवान के कृपापूर्ण स्पर्श से उसके सारे पाप-ताप नष्ट हो गये। उसने भगवान की परिक्रमा करके उनके चरणों में प्रणाम किया और सबके देखते-देखते अपने लोक की यात्रा की।

गजेन्द्र भी भगवान का स्पर्श होते ही अज्ञान से मुक्त हो गया। उसे भगवान का ही रूप प्राप्त हो गया। वह पीताम्बरधारी एवं चतुर्भुज बन गया। गजेन्द्र पूर्वजन्म में द्रविड देश का पाण्ड्वंशी राजा था। उसका नाम था इन्द्रद्युम्न। वह भगवान का एक श्रेष्ठ उपासक एवं अत्यन्त यशस्वी था। एक बार राजा इन्द्रद्युम्न राजपाट छोड़कर मलय पर्वत पर रहने लगे थे। उन्होंने जटाएँ बढ़ा लीं, तपस्वी का वेष धारण कर लिया। एक दिन स्नान के बाद पूजा के समय मन को एकाग्र करके एवं मौनव्रती होकर सर्वशक्तिमान् भगवान की आरधना कर रहे थे। उसी समय दैवयोग से परमयशस्वी अगस्त्य मुनि अपनी शिष्य मण्डली के साथ वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने देखा कि यह प्रजापालन और गृहस्थोचित अतिथि सेवा आदि धर्म का परित्याग करके तपस्वियों की तरह एकान्त में चुपचाप बैठकर उपासना कर रहा है, इसलिये वे राजा इन्द्रद्युम्न पर क्रुद्ध हो गये। उन्होंने राजा को यह शाप दिया- ‘इस राजा ने गुरुजनों से शिक्षा नहीं ग्रहण की है, अभिमानवश परोपकार से निवृत्त होकर मनमानी कर रहा है। ब्राह्मणों का अपमान करने वाला यह हाथी के समान जड़बुद्धि है, इसलिये इसे वही घोर अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! शाप एवं वरदान देने में समर्थ अगस्त्य ऋषि इस प्रकार शाप देकर अपनी शिष्य मण्डली के साथ वहाँ से चले गये। राजर्षि इन्द्रद्युम्न ने यह समझकर सन्तोष किया कि वह मेरा प्रारब्ध ही था। इसके बाद आत्मा की विस्मृति करा देने वाली हाथी की योनि उन्हें प्राप्त हुई। परन्तु भगवान की आराधना का ऐसा प्रभाव है कि हाथी होने पर भी उन्हें भगवान की स्मृति हो ही गयी।

भगवान श्रीहरि ने इस प्रकार गजेन्द्र का उद्धार करके उसे अपना पार्षद बना लिया। गन्धर्व, सिद्ध, देवता उनकी इस लीला का गान करने लगे और वे पार्षदरूप गजेन्द्र को साथ ले गरुड़ पर सवार होकर अपने अलौकिक धाम को चले गये।

कुरुवंश शिरोमणि परीक्षित! मैंने भगवान श्रीकृष्ण की महिमा तथा गजेन्द्र के उद्धार की कथा तुम्हें सुना दी। यह प्रसंग सुनने वालों के कलिमल और दुःस्वप्न को मिटाने वाला एवं यश, उन्नति और स्वर्ग देने वाला है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः