श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 26 श्लोक 1-17

तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वों की उत्पत्ति का वर्णन

श्रीभगवान् ने कहा- माताजी! अब मैं तुम्हें प्रकृति आदि सब तत्त्वों के अलग-अलग लक्षण बतलाता हूँ; इन्हें जानकर मनुष्य प्रकृति के गुणों से मुक्त हो जाता है। आत्मदर्शनरूप ज्ञान ही पुरुष के मोक्ष का कारण है और वही उसकी अहंकाररूप हृदय ग्रन्थि का छेदन करने वाला है, ऐसा पण्डितजन कहते हैं। उस ज्ञान का मैं तुम्हारे आगे वर्णन करता हूँ। यह सारा जगत् जिससे व्याप्त होकर प्रकाशित होता है, वह आत्मा ही पुरुष है। वह अनादि, निर्गुण, प्रकृति से परे, अन्तःकरण में स्फुरित होने वाला और स्वयंप्रकाश है। उस सर्वव्यापक पुरुष ने अपने पास लीला-विलासपूर्वक आयी हुई अव्यक्त और त्रिगुणात्मिक वैष्णवी माया को स्वेच्छा से स्वीकार कर दिया। लीला परायण प्रकृति अपने सत्त्वादि गुणों द्वारा उन्हीं के अनुरूप प्रजा की सृष्टि करने लगी; यह देख पुरुष ज्ञान को आच्छादित करने वाली उसकी आवरण शक्ति से मोहित हो गया, अपने स्वरूप को भूल गया। इस प्रकार अपने से भिन्न प्रकृति को ही अपना स्वरूप समझ लेने से पुरुष प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाने वाले कर्मों में अपने को ही कर्ता मानने लगता है। इस कर्तृत्वाभिमान से ही अकर्ता, स्वाधीन, साक्षी और आनन्दस्वरूप पुरुष को जन्म-मृत्युरूप बन्धन एवं परतन्त्रता की प्राप्ति होती है। कार्यरूप शरीर, कारणरूप इन्द्रिय तथा कर्तारूप इन्द्रियाधिष्ठातृ-देवताओं में पुरुष जो अपनेपन का आरोप कर लेता है, उसमें पण्डितजन प्रकृति को ही कारण मानते हैं तथा वास्तव में प्रकृति से परे होकर भी जो प्रकृतिस्थ हो रहा है, उस पुरुष को सुख-दुःखों के भोगने के कारण मानते हैं।

देवहूति ने कहा- पुरुषोत्तम! इस विश्व के स्थूल-सूक्ष्म कार्य जिनके स्वरूप हैं तथा जो इसके कारण हैं, उन प्रकृति और पुरुष का लक्षण भी आप मुझसे कहिये।

श्रीभगवान् ने कहा- जो त्रिगुणात्मक, अव्यक्त, नित्य और कार्य-कारणरूप है तथा स्वयं निर्विशेष होकर भी सम्पूर्ण विशेष धर्मों का आश्रय है, उन प्रधान नामक तत्त्व को ही प्रकृति कहते हैं। पाँच महाभूत, पाँच तन्मात्रा, चार अन्तःकरण और दस इन्द्रिय-इन चौबीस तत्त्वों के समूह को विद्वान् लोग प्रकृति का कार्य मानते हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश- ये पाँच महाभूत हैं; गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द- ये पाँच तन्मात्र माने गये हैं। श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना, नासिका, वाक्, पाणि, पाद, उपस्थ और पायु- ये दस इन्द्रियाँ हैं। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार- इन चार के रूप में एक ही अन्तःकरण अपनी संकल्प, निश्चय, चिन्ता और अभिमानरूप चार प्रकार की वृत्तियों से लक्षित होता है। इस प्रकार तत्त्वज्ञानी पुरुषों ने सगुण ब्रह्म के सन्निवेश स्थान इन चौबीस तत्त्वों की संख्या बतलायी है। इनके सिवा जो काल है, वह पचीसवाँ तत्त्व है। कुछ लोग काल को पुरुष से भिन्न तत्त्व न मानकर पुरुष का प्रभाव अर्थात् ईश्वर की संहारकारिणी शक्ति बताते हैं। जिससे माया के कार्यरूप देहादि में आत्मत्व का अभिमान करके अहंकार से मोहित और अपने को कर्ता मानने वाले जीव को निरन्तर भय लगा रहता है।

मनुपुत्रि! जिनकी प्रेरणा से गुणों की साम्यावस्थारूप निर्विशेष प्रकृति में गति उत्पन्न होती है, वास्तव में वे पुरुषरूप भगवान् ही ‘काल’ कहे जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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