श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 1-14

प्रथम स्कन्ध: एकादश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः एकादश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


द्वारका में श्रीकृष्ण का राजोचित स्वागत

सूतजी कहते हैं- श्रीकृष्ण ने अपने समृद्ध आनर्त देश में पहुँचकर वहाँ के लोगों की विरह-वेदना बहुत कुछ शान्त करते हुए अपना श्रेष्ठ पांचजन्य नामक शंख बजाया। भगवान के होंठों की लाली से लाल हुआ वह श्वेतवर्ण का शंख बजते समय उनके करकमलों में ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे लाल रंग के कमलों पर बैठकर कोई राजहंस उच्चस्वर से मधुर गान कर रहा हो। भगवान के शंख की वह ध्वनि संसार के भय को भयभीत करने वाली है। उसे सुनकर सारी प्रजा अपने स्वामी श्रीकृष्ण के दर्शन की लालसा से नगर के बाहर निकल आयी। भगवान श्रीकृष्ण आत्माराम हैं, वे अपने आत्मलाभ से ही सदा-सर्वदा पूर्णकाम हैं, फिर भी जैसे लोग बड़े आदर से भगवान सूर्य को भी दीपदान करते हैं, वैसे ही अनेक प्रकार की भेंटों से प्रजा ने श्रीकृष्ण का स्वागत किया। सबके मुख कमल प्रेम से खिल उठे। वे हर्षगद्गद वाणी से सबके सुहृद और संरक्षक भगवान श्रीकृष्ण की ठीक वैसी स्तुति करने लगे, जैसे बालक अपने पिता से अपनी तोतली बोली में बातें करता हैं।

‘स्वामिन्! हम आपके उन चरणकमलों को सदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं, जो इस संसार में परम कल्याण चाहने वालों के लिये सर्वोत्तम आश्रय हैं, जिनकी शरण ले लेने पर परम समर्थ काल भी एक बाल तक बाँका नहीं कर सकता। विश्वभावन! आप ही हमारे माता, सुहृद, स्वामी और पिता हैं; आप ही हमारे सद्गुरु और परम आराध्यदेव हैं। आपके चरणों की सेवा से हम कृतार्थ हो रहे हैं। आप ही हमारा कल्याण करें। अहा! हम आपको पाकर सनाथ हो गये; क्योंकि आपके सर्वसौन्दर्य सार अनुपम रूप का हम दर्शन करते रहते हैं। कितन सुन्दर मुख है। प्रेमपूर्ण मुस्कान से स्निग्ध चितवन! यह दर्शन तो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है।

कमलनयन श्रीकृष्ण! जब आप अपने बन्धु-बान्धवों से मिलने के लिये हस्तिनापुर अथवा मथुरा (ब्रजमण्डल) चले जाते हैं, तब आपके बिना हमारा एक-एक क्षण कोटि-कोटि वर्षों के समान लम्बा हो जाता है। आपके बिना हमारी दशा वैसी हो जाती है, जैसे सूर्य के बिना आँखों की। भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण प्रजा के मुख से ऐसे वचन सुनते हुए और अपनी कृपामयी दृष्टि से उन पर अनुग्रह की वृष्टि करते हुए द्वारका में प्रविष्ट हुए।

जैसे नाग अपनी नगरी भोगवती (पातालपुरी) की रक्षा करते हैं, वैसे ही भगवान की वह द्वारकापुरी भी मधु, भोज, दशार्ह, अर्ह, कुकुर, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवों से, जिनके पराक्रम की तुलना और किसी से भी नहीं की जा सकती, सुरक्षित थी। वह पुरी समस्त ऋतुओं के सम्पूर्ण वैभव से सम्पन्न एवं पवित्र वृक्षों एवं लताओं के कुंजों से युक्त थीं। स्थान-स्थान पर फलों से पूर्ण उद्यान, पुष्पवाटिकाएँ एवं क्रीड़ावन थे। बीच-बीच में कमलयुक्त सरोवर नगर की शोभा बढ़ा रहे थे। नगर के फाटकों, महल के दरवाजों और सड़कों पर भगवान के स्वागतार्थ बंदनवारें लगायी गयी थीं। चारों ओर चित्र-विचित्र ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं, जिनसे उन स्थानों पर घाम का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। उसके राजमार्ग, अन्यान्य सड़कें, बाजार और चौक झाड़-बुहारकर सुगन्धित जल से सींच दिये गये थे और भगवान के स्वागत के लिये बरसाये हुए फल-फूल, अक्षत-अंकुर चारों ओर बिखरे हुए थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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