श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 1-10

पंचम स्कन्ध: पञ्चदशं अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: पञ्चदशं अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


भरत के वंश का वर्णन

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! भरत जी का पुत्र सुमति था, यह पहले कहा जा चुका है। उसने ऋषभदेव जी के मार्ग का अनुसरण किया। इसीलिये कलियुग में बहुत-से पाखण्डी अनार्य पुरुष अपनी दुष्ट बुद्धि से वेदविरुद्ध कल्पना करके उसे देवता मानेंगे। उसकी पत्नी वृद्धसेना से देवताजित् नामक पुत्र हुआ। देवताजित् के असुरी के गर्भ से देवद्युम्न, देवद्युम्न के धेनुमती से परमेष्ठी और उसके सुवर्चला के गर्भ से प्रतीह नाम का पुत्र हुआ। इसने अन्य पुरुषों को आत्मविद्या का उपदेश कर स्वयं शुद्धचित्त होकर परमपुरुष श्रीनारायण का साक्षात् अनुभव किया था।

प्रतीह की भार्या सुवर्चला के गर्भ से प्रतिहर्ता, प्रस्तोता और उद्गाता नाम के तीन पुत्र हुए। ये यज्ञादि कर्मों में बहुत निपुण थे। इनमें प्रतिहर्ता की भार्या स्तुति थी। उसके गर्भ से अज और भूमा नाम के दो पुत्र हुए। भूमा के ऋषिकुल्या से उद्गीथ, उसके देवकुल्या से प्रस्ताव और प्रस्ताव के नियुत्सा के गर्भ से विभु नाम का पुत्र हुआ। विभु के रति के उदर से पृथुषेण, पृथुषेण के आकूति से नक्त और नक्त के द्रुति के गर्भ से उदारकीर्ति राजर्षिप्रवर गय का जन्म हुआ। ये जगत् की रक्षा के लिये सत्त्वगुण को स्वीकार करने वाले साक्षात् भगवान् विष्णु के अंश माने जाते थे। संयमादि अनेकों गुणों के कारण इनकी महापुरुषों में गणना की जाती है।

महाराज गय ने प्रजा के पालन, पोषण, रंजन, लाड़-चाव और शासनादि करके तथा तरह-तरह के यज्ञों का अनुष्ठान करके निष्काम भाव से केवल भगवत्प्रीति के लिये अपने धर्मों का आचरण किया। इससे उनके सभी कर्म सर्वश्रेष्ठ परमपुरुष परमात्मा श्रीहरि के अर्पित होकर परमार्थरूप बन गये थे। इससे तथा ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के चरणों की सेवा से उन्हें भक्तियोग की प्राप्ति हुई। तब निरन्तर भगवच्चिन्तन करके उन्होंने अपना चित्त शुद्ध किया और देहादि अनात्म वस्तुओं से अहं भाव हटाकर वे अपने आत्मा को ब्रह्मरूप अनुभव करने लगे। यह सब होने पर भी वे निरभिमान होकर पृथ्वी का पालन करते रहे।

परीक्षित! प्राचीन इतिहास को जानने वाले महात्माओं ने राजर्षि गय के विषय में यह गाथा कही है। ‘अहो! अपने कर्मों से महाराज गय की बराबरी और कौन राजा कर सकता है? वे साक्षात् भगवान् की कला ही थे। उन्हें छोड़कर और कौन इस प्रकार यज्ञों का विधिवत् अनुष्ठान करने वाला, मनस्वी, बहुज्ञ, धर्म की रक्षा करने वाला, लक्ष्मी का प्रिय पात्र, साधु समाज का शिरोमणि और सत्पुरुषों का सच्चा सेवक हो सकता है?’

सत्यसंकल्प वाली परमसाध्वी श्रद्धा, मैत्री और दया आदि दक्ष कन्याओं ने गंगा आदि नदियों के सहित बड़ी प्रसन्नता से उनका अभिषेक किया था तथा उनकी इच्छा न होने पर भी वसुन्धरा ने, गौ जिस प्रकार बछड़े के स्नेह के पिन्हाकर दूध देती है, उसी प्रकार उनके गुणों पर रीझकर प्रजा को धन-रत्नादि सभी अभीष्ट पदार्थ दिये थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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