शुक्राचार्य हिन्दू मान्यताओं और पौराणिक महाकाव्य महाभारत के उल्लेखानुसार दैत्यों के आचार्य के रूप में प्रसिद्ध थे, महर्षि भृगु शुक्र के पिता थे।
- एक समय जब बलि वामन को समस्त भूमण्डल दान कर रहे थे तो शुक्राचार्य बलि को सचेत करने के उद्देश्य से जलपात्र की टोंटी में बैठ गये। जल में कोई व्याघात समझ कर उसे सींक से खोदकर निकालने के यत्न में इनकी आँख फूट गयी। फिर आजीवन वे काने ही बने रहे। तब से इनका नाम एकाक्षता का द्योतक हो गया।
- शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था।
- बृहस्पति ऋषि के पुत्र कच ने इनसे संजीवनी विद्या सीखी थी [1]।
- दैत्यों के गुरु शुक्र का वर्ण श्वेत है। उनके सिर पर सुन्दर मुकुट तथा गले में माला हैं वे श्वेत कमल के आसन पर विराजमान हैं। उनके चार हाथों में क्रमश:- दण्ड, रुद्राक्ष की माला, पात्र तथा वरदमुद्रा सुशोभित रहती है।
- महर्षि भृगु के पुत्र शुक्राचार्य जी ने बृहस्पति जी से प्रतिद्वन्द्विता रखने के कारण दैत्यों का आचार्यत्व स्वीकार किया।
- शुक्राचार्य दानवों के पुरोहित हैं। ये योग के आचार्य हैं। अपने शिष्य दानवों पर इनकी कृपा सर्वदा बरसती रहती है। इन्होंने भगवान शिव की कठोर तपस्या करके उनसे मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की थी। उसके बल से ये युद्ध में मरे हुए दानवों को ज़िंदा कर देते थे। [2]
- आचार्य शुक्र वीर्य के अधिष्ठाता हैं। दृश्य जगत में उनके लोक शुक्र तारक का भूमि एवं जीवन पर प्रभाव ज्यौतिषशास्त्र में वर्णित है।
- आचार्य शुक्र नीति शास्त्र के प्रवर्तक थे। इनकी शुक्र नीति अब भी लोक में महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इनके पुत्र षण्ड और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहाँ नीति शास्त्र का अध्यापन करते थे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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