श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
32. शक्र-संग्राम
इन्द्र लौट आये और नम्रतापूर्वक बोले- 'देवि! मुझे पराजय की कोई लज्जा नहीं है। मैं इन त्रिभुवनेश्वर से हारा हूँ; किन्तु आपके योग्य यह वचन नहीं है। जो अनन्तानन्त ब्रह्माण्डों के विधायक-पालक हैं, वे पुरन्दर को मार ही देना चाहेंगे तो रक्षा कौन करेगा?' इसी समय देवमाता अदिति के साथ महर्षि कश्यप वहाँ आ गये। देवगुरु बृहस्पति से सूचना पाकर दोनों शीघ्रतापूर्वक आये थे। दूर से ही महर्षि ने पुकारा- 'यदि हमें माता-पिता मानते हो-हमारी आज्ञा माननी है तो शस्त्र नीचे डाल दो।' इन्द्र और कृष्ण दोनों ने वाहन त्याग दिये थे महर्षि का शब्द सुनते ही। दोनों ने एक साथ प्रणाम किया। देवमाता अदिति ने तनिक झिड़की दी- 'इन्द्र तो अज्ञानी है, अभिमानी है और क्रोधी है, किन्तु कृष्ण! तुम भी इसे क्षमा नहीं करते? मुझ माता की उपेक्षा तुम भी करते हो?' 'मातः! मैं क्षमा चाहता हूँ।' श्रीकृष्णचन्द्र ने सिर झुका लिया- 'नन्दन-कानन में आपके लिए महर्षि ने जो कोविदारतरु पारिजात से प्रकट किया था, वह सदा त्रिशाखाशोभित अब भी है। सुरेन्द्र को उससे सन्तोष करना चाहिए। क्षीराब्धिसमुद्भव पारिजात पर आपकी पुत्रवधू अपना स्वत्व माने तो आप उसे आशीर्वाद दें।' 'जनार्दन! पिता के पदार्थ पर तुम्हारा स्वत्व नहीं है, यह कहने का साहस मेरे सम्मुख शक्र नहीं करेगा।' श्रीकृष्ण ने इन्द्र को हृदय से लगाया और उनका वज्र उन्हें लौटाते हुए कहा- 'पारिजात मेरे पृथ्वी पर रहने तक द्वारिका में रहेगा। मुझे भगवान विश्वनाथ ने दानवों के षट्पुर को ध्वंस करने की आज्ञा दी है। जयन्त और प्रवर को मेरा साथ देना चाहिए। मैं दस दिन में इनको नष्ट कर दूँगा।' 'दोनों का सौभाग्य।' महर्षि कश्यप, अदिति देवी और इन्द्र भी वहाँ से स्वर्ग के लिए विदा हो गये। जयन्त तथा प्रवर ने दानवों से युद्ध के समय उपस्थित होना स्वीकार किया। पत्नी के साथ श्रीकृष्णचन्द्र द्वारिका पधारे। पारिजात सत्यभामा जी के प्रांगण में स्थापित हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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