श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
43. ऋषिगणागमन
भक्ति देवी का स्वभाव ही है कि वे जिस हृदय को धन्य करती हैं उसे सदा यही लगता है कि उसमें प्रीति नहीं है। जिनके स्मरण से प्राणी पुनीत होते हैं, उन महर्षियों को श्रीकृष्ण भी क्या वरदान देते। 'अब आप अनुमति दो।' महर्षियों ने अन्त में कहा- 'हमारे हृदयों में आपके ये श्रीचरण इसी प्रकार सदा स्पष्ट रहें।' 'महाराज उग्रसेन! धृतराष्ट्र जी! युधिष्ठिर एवं अन्य नरपतिगण! आप सबका मंगल हो।' अब महर्षियों ने सब पर एक दृष्टि डाली- 'आपके मध्य ये परमपुरुष हैं, आप सब धन्य हैं। अब हम इस स्थान से अपने आश्रमों को जायेंगे।' ऋषि-महर्षि, तपस्वी-साधकों को प्रवास में कुछ-न-कुछ असुविधा, कुछ-न-कुछ उनकी साधना में व्यवधान रहता ही है। अतः यह वर्ग कम ही प्रवास में रुकता है। अपने आश्रमों में पहुँचने की त्वरा सहज स्वाभाविक थी। इस जनाकीर्ण मेले में इन विरक्त, विविक्तसेवी तापसों का मन कैसे लगता। श्रीकृष्ण-दर्शन का लोभ न होता, इन्हें कहाँ पुण्य का प्रलोभन था कि यहाँ आते। इनमें से एक का भी दर्शन अत्यंत दुर्लभ। इतने महर्षि अमित महिमाशाली सब प्रख्यात ऋषिगण एकत्र किन्तु चाहे जितनी उत्कण्ठा हृदय में हो उनसे कुछ प्रार्थना करने का साहस भी तो चाहिए। इनके भ्रूभंग मात्र से सृष्टिकर्ता तक शंकित रहते हैं। सुर ही नहीं, श्रीहरि के वक्ष पर पदाघात करने वाले महर्षि भृगु तक है। इनमें और भगवान परशुराम......। कोई कुछ बोलने का साहस नहीं कर पाता। जिज्ञासा चाहे कितनी प्रबल हो, अपने से बहुत अधिक उत्कृष्ट महापुरुष के सम्मुख वाणी संकुचित हुए बिना नहीं रहती। जिनके चरणों में दूर से प्रणिपात करना भी सुरेन्द्र के लिए अतिशय गौरव की बात है, ऐसे महर्षिगणों के सम्मुख कोई कैसे बोले और क्या कहे। सब नरेश चुप बने रहे। सबने प्रारम्भ से अंजलि बाँध रखी थीं और इनके दर्शन करके ही कृतकृत्य हो गये थे। महर्षियों ने श्रीकृष्णचन्द्र का स्तवन किया अतः वसुदेव जी को साहस मिला। जब ऋषिगणों ने सबको सम्बोधित करके अपने आश्रम जाने की बात कही, वे हाथ जोड़े उठ खड़े हुए सबके मध्य। सबको मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और कुछ आगे बढ़ आये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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