श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
59. बहिन सुभद्रा
सचमुच अभिमन्यु द्वारिका में सबका स्नेहभाजन हो गया था। भगवान संकर्षण स्वयं उसे व्यायाम-शिक्षा देते थे गद ने उसे नन्हीं गदा थमा दी थी। प्रद्युम्न और साम्ब उसे दस वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते धनुर्वेद का पारंगत बना चुके थे। ब्रह्मास्त्र और नारायणास्त्र जो द्रोणाचार्य उसे कभी प्रदान न करते, प्रद्युम्न ने अपनी ओर से दे दिये थे। साम्ब ने तो उसे पाशुपत भी प्रदान कर दिया। महर्षि गर्गाचार्य अभिमन्यु को वेद-वेदांग की शिक्षा दे रहे थे। ननिहाल में सबका अत्यंत वात्सल्य प्राप्त करके भी अभिमन्यु को क्रीड़ा-प्रिय नहीं थी। वह अध्ययन एवं अभ्यास में ही जुटा रहता था। चाहे जब उद्धव के समीप जा बैठता और उनसे नीति-शास्त्रों की कठिनतम समस्याएँ पूछता। इस बालक की अद्भुत प्रतिभा सबको चकित करने वाली थी। अभिमन्यु बालक था। सबका स्नेह था उस सुन्दर, तेजस्वी, प्रतिभाशाली बालक पर। सुभद्रा शैशव से ही श्रीबलराम की वात्सल्य भाजना, किन्तु अब भी उनका स्वभाव वही था। वे श्रीकृष्ण की ही सुनती हैं। अपने इन छोटे भैया में ही उनका मन लगा रहता हैं, और- 'भैया जो करते हैं, वही उचित है। उसी में हित है।' सुभद्रा की बुद्धि इसमें स्थिर है। उनके मुख पर विषाद की कोई रेखा कभी नहीं दीखी तो रोष की अरुणिमा भी नहीं आयी। वे शान्त प्रसन्न, इस तपस्वी जीवन में भी वैसी ही गंभीर। 'भाभी ने भैया को मेरा ठीक नाम लेना सिखला दिया है।' सुभद्रा जी को श्रीकृष्णचन्द्र ने 'सुभद्रे!' कहकर पुकारा तो हँसकर महारानी भद्रा से बोली- 'बचपन में दोनों भाई मेरे नाम में 'सु' लगाना भूल जाते थे किन्तु अब दोनों में से कोई यह भूल नहीं करते।' 'वह तो इनके बचपन की भूल थी।' महारानी भद्रा हँस पड़ी- 'ननद जी परम मंगलमयी हैं, अब यह बात कैसे भूली जा सकती है।' ऐसे सात्त्विक परिहास के लिए भी सुभद्रा के स्वभाव में कम ही अवकाश था। वे उपासनामयी हो गयीं थीं। उन्होंने तो अभिमन्यु की भी खोज लेना छोड़ दिया था। वह भी माता के पास कुछ क्षण ही रुकता था। रात्रि में भी वह किसी भाई या मामा के समीप कुछ सुनता, सीखता और सो जाता था। 'पांडवों का क्या होगा?' किसी ने कभी कहा भी तो सुभद्रा का निश्चित उत्तर था- 'उनका हित भैया के हाथों में सुरक्षित हैं।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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