श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
5. स्यमन्तक मणि
'मणि का क्या हुआ?' श्रीकृष्णचन्द्र ने पूछा। वहाँ शव-कंकाल के वस्त्रों, अंगों पर या आसपास मणि नहीं है, यह उन दोनों व्यक्तियों ने देख लिया। 'कोई गीध या चील मांसखण्ड समझकर ले उड़ी हो तो?' एक नागरिक ने संदेह किया। 'मणि केसरी ले गया है।' एक चिह्न सूचक ने पृथ्वी की ओर देखते कहा- 'उसके अगले पंजे में मणि है, यह चिह्न से स्पष्ट है।' केसरी ने रक्ताक्त लाल मणि को मांसखण्ड माना हो, इसमें आश्चर्य की बात नहीं थी। एक अश्वारोही द्वारिका भेजा गया सत्राजित को समाचार देने कि वे अपने भाई का शव[1] संस्कार करने के लिये मँगा लें। एक व्यक्ति को शव के समीप छोड़कर शेष लोग सिंह के पद चिह्नों के पीछे चल पड़े। सिंह पर्वत पर चढ़ता गया था। अश्व छोड़ देने पड़े एक के संरक्षण में। पर्वत के शिखर पर सिंह का शव मिल गया। उसके शव की भी वही दशा थी जो पहिले दोनों शवों की। उसे भी पक्षियों तथा पशुओं ने नोंच खाया था। मणि वहाँ भी नहीं मिली। 'इसे तो किसी असाधारण आकार वाले रीछ ने मारा है।' चिह्न देखने वालों ने सिंह के पंजों में रीछ के केशों का एक गुच्छा देख लिया- 'वह रीछ इसे मारकर मणि ले गया।' रीछ कुछ पद चारों पैरों- हाथ-पैर दोनों से चला था। इसके पश्चात वह केवल पैरों से गया था। उसके पैर रक्त सने न होते तो पर्वत पर वह किधर गया, यह पता भी नहीं लगता। उन चिह्नों का पीछा करते हुए पर्वतशिखर से कुछ नीचे दूसरी दिशा में उतरना पड़ा और वहाँ वे चिह्न एक बहुत गहरी अन्धकारपूर्ण गुफा में चले गये थे। 'लगता है यही रीछ का निवास है।' चिह्न देखने वाले गुफा-द्वार तक आकर रुक गये। 'ये चिह्न पैरों के इतने बड़े हैं और इतनी दूर-दूर पड़े हैं कि रीछ कितना बड़ा होगा, अनुमान करना कठिन है। कोई पर्वताकार रीछ होना चाहिये। इतना भारी रीछ सुनने में भी नहीं आया।' 'आप सब यहीं रुकें और मेरी प्रतीक्षा करें।' श्रीकृष्णचन्द्र ने सबसे कहा। 'क्या आवश्यकता है?' साथ का कोई भी नहीं चाहता था कि श्रीद्वारिकाधीश उस गुफा में प्रवेश करें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जैसे भी वह अब था
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