श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
8. कलंक-मोचन
'ये द्वारिकावासी- ये यादव उनके पिता की निन्दा करते थे, ये गालियाँ देते थे उन्हें, अन्त में इन्होंने उनका वध कर दिया।' सत्यभामा को द्वारिका में कोई अपना अपने से सहानुभूति रखने वाला नहीं लगा। उन मनस्विनी ने किसी से कुछ नहीं कहा। उनके जो अपने हैं वे तो हस्तिनापुर चले गये अग्रज के साथ। वे उन्हीं के समीप चल पड़ीं। रथ में एकाकी सत्यभामा। वृद्ध पिता के सारथी को लेकर वे रात-दिन यात्रा करके पहुँची थीं। रोते-रोते उनके नेत्र सूज गये थे। केश बिखरे थे। जाकर अपने स्वामी के चरणों पर गिर पड़ीं। 'हाय! वे पितृचरण इस प्रकार मारे गये।' श्रीकृष्णचन्द्र भी सुनकर रो पड़े। श्रीसंकर्षण ने क्रोध से काँपते हुए कहा- 'शतधन्वा की आयु पूरी हो चुकी। उसका वध करके ही श्रीकृष्ण श्वसुर की अन्त्येष्टि करेंगे।' सात्यकि को श्रीकृष्ण ने लाक्षागृह जाकर पाण्डवों की अस्थि-चयन का कार्य सौंपा और उसी समय सत्यभामा को अपने रथ पर बैठाकर द्वारिका चल पड़े। बलराम जी का रथ भी साथ ही चला। शतधन्वा ने आवेश में सत्राजित को मार दिया था; किन्तु मणि लेकर घर पहुँचने पर जब प्रातःकाल पता लगा कि सत्यभामा हस्तिनापुर चलीं गयीं, भय ने उसे विमूढ़ बना दिया। उसने सोचा भी नहीं था कि सत्राजित की कन्या इतनी त्वरा करेगी। उसे तो लगता था कि श्रीकृष्ण-बलराम तक सन्देश ही कुछ महीनों में पहुँचेगा। द्वारिका में सत्राजित की निन्दा पहिले हुई थी, उससे कोई सत्राजित की मृत्यु को महत्त्व नहीं देगा, यह वह मान बैठा था। भय के कारण उसे सूझ नहीं रहा था कि वह क्या करे। अपने भवन में छिपा बैठा था। उसमें तो चेतना तब आयी जब सुना कि दोनों भाई द्वारिका आ पहुँचे और सत्यभामा को सत्राजित के भवन में उतारकर वहाँ पर्याप्त सेवक-सेविकायें भेजीं उन्होंने। उन्होंने पहुँचते ही पूछा- 'शतधन्वा है कहाँ? उस नराधम को किसी ने देखा है?' कुशल थी, कोई नहीं जानता था कि शतधन्वा अपने भवन में ही छिपा बैठा है। अब वह यहाँ सुरक्षित नहीं है। अपनी सौ योजन (सात सौ मील) लगातार दौड़ते जाने में समर्था घोड़ी हृदया पर मणि लेकर वह बैठा और रात्रि के अन्धकार में कृतवर्मा के घर गया- 'आप मेरी सहायता करें।' 'मैं सर्वसमर्थ जगदीश्वर भगवान वासुदेव और संकर्षण की अवहेलना करके तुम्हारा पक्ष लेने का साहस नहीं कर सकता।' कृतवर्मा ने डांट दिया- 'मैंने तो नहीं कहा था कि सत्राजित का वध कर दो। उनका अपराध करके कौन सकुशल रह सकता है? तुमने देखा नहीं कि कंस को दोनों भाईयों ने उसके सहायकों और भाइयों के साथ कैसे मार दिया। जरासन्ध जैसा पराक्रमी वीर सत्रह बार हारा इनसे। तुम कृपा करके यहाँ से तत्काल चले जाओ। मैं तुम्हारी कोई सहायता नहीं करूँगा।' यादव सेनापति कृतवर्मा जैसे वीर ने टके-सा उत्तर दे दिया, अब किससे आशा हो सकती थी; किन्तु शतधन्वा अक्रूर के भवन गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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