श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
16. हंस-डिम्भक-मोक्ष
श्रीकृष्ण ने भी ब्रह्मशिर के प्रयोग से ही उत्तर दिया और फिर दोनों ओर से चले उस अमोघ महास्त्र का उपसंहार कर लिया। दोनों को आकर्षित करके शान्त कर दिया। अमोघ ब्रह्मशिर जैसा अस्त्र निष्प्रभाव हो गया, यह देखकर हंस रथ से कूदकर भागा यमुना की ओर और गम्भीर हृद में कूद पड़ा। उसके पीछे ही श्रीकृष्ण भी रथ से कूदकर दौड़े और उसके ऊपर कूदे उन जगदाधार का भार- हंस तल में धँसता चला गया। वह नागलोक तक धँस गया मरने पर भी। वहाँ नागों के लोक के मांसभक्षी जीवों ने उसका शरीर भक्षण कर लिया। श्रीकृष्णचन्द्र जल से निकले और उनका पांचजन्य विजयघोष करता गूँजने लगा। यह शंख का विजयनाद सुनकर डिम्भक श्रीबलराम से युद्ध करना छोड़कर व्याकुल दौड़ा। वह भी हंस के कूदने के स्थान पर यमुना में कूद गया। भाई को यमुना में कूदते देख लिया था उसने। वह बार-बार गोता लगाता और भाई को ढूँढ़ता था। श्रीकृष्ण ने भी वैसे ही उत्तर दिया- 'नीच! इस यमुना के अतलप्रवाह से पूछ।' हंस-डिम्भक परम शिवभक्त थे। श्रौत-स्मार्त्त कर्म परायण थे। उनमें दर्प आ गया था; किन्तु महामुनीन्द्र दुर्लभ श्रीकृष्ण के चरणों के आघात से हंस ने देह त्याग किया था। डिम्भक भी इन सर्वेश्वर का श्रीमुख देखकर मरा। दोनों का भव-बन्धन समाप्त हो गया। दोनों निष्कल्मष हो गये और उनकी भक्ति को तो धन्य होना ही था। वहाँ से श्रीसंकर्षण के साथ श्रीद्वारिकाधीश लौटे पुष्कर। सात्यकि यादव सेना के साथ प्रतीक्षा कर रहे थे। सबने तीनों पुष्करों में स्नान किया सविधि और वहाँ तर्पण-पूजनादि किये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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