हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 52 श्लोक 1-14

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्विपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

शाल्व के कथनानुसार जरासंध आदि नरेशों का शाल्व को ही कालयवन के पास दूत बनाकर भेजना

वैशम्पायन जी कहते हैं– जनमेजय! वसुदेवपुत्र श्रीकृष्ण के वहाँ से चले जाने पर सब राजा अपने अंगों को आभूषणों से विभषित करके देवेन्द्र के समान सज-धजकर राजा भीष्मक की सभा में उन्हें समझने के लिये गये। श्रीकृष्ण के चले जाने से उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई थी। सभा में आकर सुन्दर सिंहासनों पर सुखपूर्वक बैठे हुए सोम और सूर्य के समान प्रकाशित होने वाले राजओं को देखकर उत्तम नीति के अनुकूल युक्तियुक्त बात कहने वाले नरेशों में सिंह के समान पराक्रमी राजा भीष्मक इस प्रकार बोले- ‘नरेश्वरों! स्वयंवर के द्वारा जो श्रीकृष्‍ण विरोधरुपी दोष सम्पादित हो रहा था, उसे जानकर (मैंने इसे स्थगित कर दिया) आप लोग मुझ वृद्ध के अपराध को क्षमा करें। जिसे दैवरुपी दावानल ने अच्छी तरह जला दिया जो, उस वृक्ष से फल की प्राप्ति कैसे हो सकती है। (जिस स्वयंवर में भगवदविरोध की सम्भावना हो, वह सफल नहीं हो सकता)।'

वैशम्पायन जी कहते हैं– जनमेजय! ऐसा कहकर भीष्मक ने उन सब राजाओं का विधिपूर्वक सत्कार करके उन्हें विदा कर दिया। उनमें से कोई मध्य देश के थे, कोई पूर्व, पश्चिम और उत्तर भारत के। उन सबको उन्होंने सादर विदा किया। वे सब महाधनुर्धर नरेश भी प्रसन्नचित्त होकर राजा का यथायोग्य सम्मान करके अपने-अपने स्थान को चले गये। जरासंध, सुनीथ, पराक्रमी दन्तवक्त्र, सौभपति शाल्व, राजा महाकूर्म, क्रथ और कैशिक आदि श्रेष्ठकुल के नरेश, राजर्षि वेणुदारि तथा काश्मीर नरेश ये एवं दूसरे बहुत-से दाक्षिणात्य नरपाल राजा भीष्मक की एकान्त वार्ता सुनने की इच्छा से उनके पास ही ठहर गये। उन सबको देखकर बलवान राजाधिराज राजा भीष्मक ने स्नेहपूर्ण हृदय से वहाँ खडे़ हुए उन भूपालों के प्रति स्निग्ध एवं गम्भीर वाणी में धर्म, अर्थ और काम से युक्त, मधुर, सन्धि-विग्रह आदि छ∶ गुणों से अलंकृत, शुभ एवं नीति सम्पन्न बात कही।

भीष्मक बोले– राजाओं! आप सब पृथ्वी-पतियों की ओर देखकर और आपके द्वारा कहे गये नीतियुक्त वचन को सुनकर मैंने ऐसा कार्य किया है। आप सब लोग सत्पुुरुष हैं; अत∶ मेरे इस बर्ताव को क्षमापूर्वक सह लेंगे। हम अपने को सदा अपराधी मानते हैं।

वैशम्पायन जी कहते हैं– जनमेजय! ऐसा कहकर नीति-निपुण विद्वान राजा भीष्मक उस राजसभा में अपने पुत्र को लक्ष्य करके बोले।

भीष्मक ने कहा– राजाओं! अपने पुत्र की चेष्टा को देखकर मेरे नेत्र भय से व्याकुल हो उठे हैं। मैं इन लोगों को (रुक्मी आदि को) बालक (विवेकशून्य) मानता हूँ। मेरी दृष्टि में ये भगवान श्रीकृष्ण परम पुरुष हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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