विरह-पदावली -सूरदास
(83) (सूरदास जी के शब्दों में माता यशोदा कह रही हैं-) लाल! इस बार फिर बालक बन जाओ। मनमोहन! मेरे आँगन में तुम नंगे घूमते फिरते थे, वह स्वभाव तुम्हारा कैसे छूट जायगा? याद करो-मक्खन के लिये तुम किस प्रकार मचला करते थे और सबेरे ही उठकर दही का मटका पकड़ लेते थे और जो तुम्हें प्रिय लगता था, वही थोड़ा-सा उठकर दही का मटका पकड़ लेते थे और जो तुम्हें प्रिय लगता था, वही थोड़ा-सा लेकर भाग जाते थे तथा जब तुम इस प्रकार खाते थे लाल! तब मैं सुखी होती थी। जिसके लिये मैं हाथ में छड़ी लेकर अपने (लज्जादि) गुण त्यागकर व्याकुल होकर भटकती फिरती थी, वही मनमोहन प्यारे! तुम (अब) राजा हो गये हो, यह मैं देखती हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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