विरह-पदावली -सूरदास
(278) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) माधव! तुम्हारे दर्शन के लिये हम व्यग्र रहती हैं। तुम अपने साथ जो हमारा मन ले गये, उसे फिर तुमने लौटाया नहीं। तुम्हारे बिना हमें घर अच्छा नहीं लगता फिर भी मन को (उसमें) हम फँसाये रखती हैं। जिस भाँति कमलिनियों को पाला नष्ट कर देता है, उसी भाँति आपने हमारे प्रति किया, यह अत्यन्त (महान्) दुःख किससे पुकारकर कहें। सारा संसार हमने ढूँढकर देख लिया; फिर भी तुम्हारा वियोग होने के बाद से हमने सुख कभी नहीं पाया। (क्या श्यामसुन्दर के साथ) व्रज का सारा सम्बन्ध नन्द जी सदा के लिये निबटा (तोड़) आये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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