विरह-पदावली -सूरदास
राग नट श्यामसुन्दर श्रीनन्द जी से कहते हैं- ‘आप व्रज पधारें! मथुरा और व्रज में दूरी ही कितनी है, अतः मन में (आप) क्यों पछता रहे हैं? क्यों अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं। क्या मैं कहीं दूर जा रहा हूँ?’ (यह सुनकर श्रीनन्दराय के) निष्ठुर हृदय में ज्ञान ने अपनी क्रिया की, जिससे (व्रजराय ने श्यामसुन्दर की) बात मान ली। (फिर क्या था) नन्द जी हाथ जोड़ खड़े होकर (बोले-मैं) ‘तुम्हारे कहने से व्रज जाता हूँ।’ सूरदास जी कहते हैं कि मुख से ही वे यह बात कहते हैं, किंतु उनका चित्त कहीं (इस बात पर) स्थिर नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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