विरह-पदावली -सूरदास
राग सारंग (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) सखी! मेरे घर में आँगन में (ही नहीं) प्रत्येक कोने में वियोग भर गया है। जैसे कुरुक्षेत्र का स्वर्ण बढ़ता जाता था[1] वैसे ही यह (वियोग-दुःख) दिनोंदिन बढ़ता ही जाता है। जब माता ने उन्हें (ऊखल से) बाँधा था, तब तो वह (एक) दुःख (व्रज में उन्हें) दिया गया था। माना कि यह (वियोग-दुःख) उसी का फल है और उसे अपनी की हुई भूल समझकर हम परस्पर मन-ही-मन उसे मान लेती हैं। किंतु (श्यामसुन्दर!) हम तो अत्यन्त दीन-हीन अबलाएँ हैं और तुम सभी प्रकार से योग्य (समर्थ) हो। इसलिये यह हमारे शरीर का (विरह रूपी) रोग (उनके) श्रीमुख-अवलोकन करते ही नष्ट हो जायगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कुरुक्षेत्र में जैसे-जैसे योधा काम आते जाते जाते थे, वैसे-वैसे उनके आभूषणों के रुप में स्वरराशि बढ़ती जाती थी।
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