गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 13
प्रभास, सरस्वती, बोधप्पिल और गोमती सिन्धु संगम का माहात्म्य श्रीनारदजी कहते हैं- महामते ! विदेहराज ! प्रभासतीर्थ का भी माहात्म्य सुनो, जो सर्वपापापहारी, पुण्यदायक तथा तेज की वृद्धि करने वाला है। राजन् ! सिंह राशि में बृहस्पति के रहते गोदावरी में, कुम्भगत बृहस्पति होने पर हरक्षेत्र (हरद्वार) में, सूर्यग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में और चन्द्रग्रहण के अवसर पर काशी में स्नान और दान करके मनुष्य जिस पुण्य को पाता है,उससे सौगुना पुण्य प्रभासक्षेत्र में प्रतिदिन स्नान करने से प्राप्त होता रहता है। दक्ष के शाप से राजयक्ष्मा नामक रोग हो जाने पर नक्षत्रों के स्वामी चन्द्रमा जहाँ स्नान करके तत्काल शाप-दोष से मुक्त हो गये और पुन: उनकी कलाओं का उदय हुआ, वही ’प्रभासतीर्थ’ है। राजन्! उस तीर्थ में परम पुण्यमयी पश्चिमवाहिनी सरस्वती प्रवाहित होती हैं। उनके जल में स्नान करके पापी मनुष्य भी साक्षात ब्रह्ममय हो जाता है। नरेश्वर ! सरस्वती के तट पर ‘बोधप्पिल’ नाम से प्रसिद्ध तीर्थ है, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव को परम कल्याणमय भागवत-धर्म का उपदेश दिया था। राजन् ! उस बोधप्पिल की विधिवत पूजा करके सिर नवाकर जो उसका स्पर्श करता है और ब्रह्मसम्मित भागवत पुराण को सुनता है- मन को संयम में रखते हुए मौनभाव से भागवत का आधा श्लोक या चौथाई श्लोक भी सुन लेता है- उसके हाथ में भगवान विष्णु का परम पद आ जाता है, अर्थात उसके लिये परम पद की प्राप्ति निश्चित हो जाती है। जो प्रभास में भाद्रपद मास की पूर्णिमा तिथि को सोने के सिंहासन युक्त श्रीमदभागवत पुराण का दान करता है, वह परमगति को प्राप्त होता है। जिन्होने कहीं या कभी श्रीमदभागवत पुराण नहीं सुना, उन भूमिवासी मनुष्यों का जन्म व्यर्थ चला गया। जिन्होंने भागवत पुराण नहीं सुना, जिनके द्वारा पुराण-पुरुष परमात्मा की आराधना नहीं की गयी तथा जिन लोगों ने भूमिदेवों ब्राह्मणों के मुखरूपी अग्नि में उत्तम भोजन की आहुति नहीं दी, उन मनुष्यों का जन्म व्यर्थ चला गया[1]द्वारका में गोमती और समुद्र का संगम सब तीर्थों का राजा है, जिसमें स्नान करके मनुष्य निर्मल वैकुण्ठधाम को प्राप्त होता है। गंगासागर संगमतीर्थ में स्नान करने से सौ अश्वमेध यज्ञों का पुण्यफल प्राप्त होता है। उससे भी सहस्त्रगुना पुण्य गोमती सागर संगम में स्नान करने से सुलभ होता है। इसी विषय में पुराणवेता पुरुष इस पुरातन इतिहास का कथन किया करते हैं, जिसके श्रवणमात्र से मनुष्य पापताप से मुक्त हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पुराणं न श्रुतं यैस्तु श्रीमद्भागवतं क्वचित्। तेषां वृथा जन्म गतं नराणां भूमिवासिनाम् ।।
यैर्न श्रुतं भागवतं पुराणं नाराधितो यै: पुरुष: पुराण:। हुतं मुखे नैव धरामराणां तेषां वृथा जन्म गतं नराणाम् ।।-(गर्ग0 द्वारका0 13। 10-11)
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