गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 9
गर्गाचार्य का द्वारकापुरी में आगमन तथा अनिरूद्ध का अश्वमेधीय अश्व की रक्षा के लिए कृतप्रतिज्ञ होना श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन ! तदनन्तर द्वारकापुरी में देवर्षिप्रवर नारदजी के चले जाने पर राजाधिराज उग्रसेन ने मुझे बुलाने के लिए अपने दूतों को भेजा। उग्रसेन के वे दूत मेरे सामने आकर इस प्रकार बोले। दूतों ने कहा- देवदेव ! ब्रह्मन ! भूदेव-शिरोमणे ! मुने ! कृपया हमारी सारी बातें विस्तारपूर्वक सुनिये- मुनेश्वर ! द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से आपके बुद्धिमान शिष्य महाराज उग्रसेन ने क्रतुश्रेष्ट अश्वमेध के अनुष्ठान का निश्चय किया है, मुने ! उस यज्ञ-महोत्सव में आप शीघ्र पधारें। उन दूतों का यह कथन सुनकर मैं गर्गाचल से द्वारकापुरी की ओर चला। नृपश्रेष्ठ ! उस यज्ञ को देखने के लिए मेरे मन में बड़ा कौतूहल था। तदनन्तर आनर्तदेश में दूर से ही मुझे द्वारकापुरी दिखायी दी, जो नाना प्रकार के वृक्षों तथा अनेकानेक उपवनों से सुशोभित थी। बहुत-से सरोवर, बावलियाँ तथा नाना प्रकार के पक्षी उस पुरी की शोभा बढ़ा रहे थे। नृपेश्वर ! वहाँ के सरोवर में नीलकमल, रक्तकमल, श्वेतकमल और पीतकमल खिले हुए थे। कुमुद और या पुष्प भी उनकी शोभा बढ़ाते थे। बिल्व, कदम्ब, बरगद, साखू, ताड़, तमाल, बिकुल (मौलसिरी), नागकेसर, पुन्नाग, कोविदर, पीपल, जम्बीर (नींबू), हरसिंगार, आम, आमड़ा, केवड़ा, गास्तनी, कदलही, जामुन, श्रीफल, पिण्ड-खर्जूर, खदिर, पत्रबिन्दु, अगर-तगर, चन्दन, रक्तचन्दन, पलाश, कपित्थ, पाकर, बेंत, बांस, मल्लिका, जूही, मोदनी (मोगरा), मदनबाण, सूर्यमुखी, प्रियावंश, गुल्मवंश, खिले हुए कर्णिकार (कनेर), सहस्त्र कन्दुक, बगस्त्य पुष्प, सुदर्शन, चन्द्रक, कुन्द, कर्णपुष्प, दाडिम (अनार), अनुजीर (अंजीर), नागरंग (नारंगी), आडुकी, सीताफल, पूगीफल, बादाम, तूल, रालादन, एला, सेवती, देवदारू, तथा इसी तरह के अन्यान्य छोटे और बड़े वृक्षों से श्रीहरि की नगरी द्वारका शोभा पर रही थी। राजेन्द्र ! वहाँ मोर, सारस और शुक कलवर करते थे। हंस, परेवा, कबूतर, कोयल, मैना, चकवा, खंजरीट तथा जटक (गौरेया) आदि समस्त सुन्दर पक्षियों के समुदाय वहाँ वैकुण्ठ से आये थे, जो मधुर वाणी में ‘कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण’ गा रहे थे। राजन ! इस तरह चलते-चलते मैंने द्वारकापुरी देखी, जो तांबे और सुवर्ण से बने हुए तीन दुर्गों (परकोटों) से घिरी हुई थी। दिव्य वृक्षों से परिपूर्ण रैवतक पर्वत (गिरनार), समुद्र तथा खाई का काम देने वाली गोमती- इन सबसे घिरी हुई श्रीकृष्ण नगरी द्वारकापुरी अत्यंत रमणीय दिखायी देती थी। उस पुरी में मंगलमय उत्सव की सूचक बन्दनवारें लगी थीं। वहाँ सोने के महल शोभा पाते थे और सदा हृष्ट-पुष्ट रहने वाले लोगों से वह पुरी भरी हुई थी। सोने के हाट-बाजारों तथा सुन्दर ध्वजा-पताकाओं से द्वारकापुरी की अनुपम शोभा हो रही थी। वहाँ बहुत-से ऊंचे-ऊंचे विष्णु-मन्दिर तथा शिव-मन्दिर दृष्टिगोचर होते थे। बड़े-बड़े शौर्यसम्पन्न यादव-वीर उस पुरी की शोभा थे। सहस्त्रों विमान, सैकड़ों चौराहे तथा चितकबरे कलया उस पुरी की शोभा में चार चांद लगा रहे थे। सड़कों, अश्वशालाओं, गजशालाओं, गोशालाओं तथ अन्यान्य शालाओं से सुशोभित द्वारकापुरी की सड़कों पर सुन्दर चांदी के पत्र जड़े गये थे। उस पुरी में नौ लाख सुन्दर महल थे। परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलह हजार एक सौ आठ भव्य भवनों से द्वारकापुरी वेष्टित-सी दिखायी देती थी। राजन ! उस नगरी के द्वार-द्वार पर नियुक्त करोड़ों शूरवीर सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लिये दिन-रात रक्षा करते थे। वहाँ के सब लोग घर-घर में भगवान श्रीकृष्ण और बलराम के यश गाते और नाम तथा लीलाओं का कीर्तन सुनते थे। इस प्रकार सब कुछ देखता हुआ मैं सुधर्मा-सभा में गया। खड़ाऊ पर चढ़ा था और तुलसी की माला से ‘कृष्ण’ नाम का जप कर रहा था। राजर्षि उग्रसेन मुझे आया देख बड़े प्रसन्न हुए और इन्द्र के सिंहासन से उठकर खड़े हो गये। भूपाल ! उनके हाथ छप्पन करोड़ अन्य यादव भी थे। उन्होंने नमस्कार करके मुझे सिंहासन पर बिठाया और मेरी पूजा की। समस्त यादवों के समाप मेरे दोनों चरण धोकर राजाधिराज उग्रसेन ने चरणोदक को सिर पर चढ़ाया और कहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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