गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 1
राजा मरुत्त का उपाख्यान प्रद्युम्रायानिरुद्धाय नम: संकर्षणाय च॥1॥ सबके हृदय में वास करने वाले सर्वसाक्षी वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध– चतुर्व्यूहस्वरूप आप भगवान को नमस्कार है। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:॥2॥ मैं अज्ञानरुपी रतौंधी के रोग से अंधा हो रहा था। जिन्होंने ज्ञानांजन की शलाका से मेरी दिव्य दृष्टि खोल दी है, उन श्रीगुरुदेव को मेरा नमस्कार है। श्रीगर्गजी ने कहा- मुने ! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण का चरित्र मैंने तुमसे कह सुनाया, जो मनुष्यों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पुरुषार्थों का देने वाला है। अब और क्या सुनना चाहते हो ? शौनक ने कहा- तपोधन ! श्रीकृष्ण के प्रिय भक्त तथा श्रीहरि में प्रगाढ़ प्रीति रखने वाले मैथिलराज बहुलाश्व ने फिर देवर्षि नारद से क्या पूछा, वही प्रसंग मुझे सुनाइये। श्रीगर्गजी बोले- मुने ! भगवान श्रीकृष्ण ने उग्रसेन को यादवों का राजा बनाया, यह सुनकर मिथिला नरेश बहुलाश्व को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने नारदजी से प्रश्न किया। बहुलाश्व बोले- देवर्ष ! ये मरुत्त कौन थे ? ये किस पुण्य से भूतल पर यदुवंशियों के राजा उग्रसेन हो गये ? जिनके स्वयं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र भी सहायक हुए, उनकी महिमा अद्भुत है। देवर्षि-शिरोमणे ! उनकी महता क्या थी ? यह मुझे बताइये। श्रीनारदजी ने कहा- राजन् ! सत्ययुग में सूर्यवंशी राजा मरुत्त चक्रवर्ती सम्राट थे। उन्होंने विधिपूर्वक विश्वजित्यज्ञ का अनुष्ठान किया था। वे हिमालय के उतर भाग में बहुत बड़ी सामग्री एकत्र करके, मुनिश्रेष्ठ संवर्त को आचार्य बनाकर यज्ञ के लिये दीक्षित हुए। उनके यज्ञ में पांच योजन विस्तृत कुण्ड बना था। एक योजन का तो ब्रह्मकुण्ड था और दो- दो कोस के पांच कुण्ड और बने थे। कुण्ड के गर्त का जो विस्तार था, तदनुसार वेदियों से दस मेखलाएं बनी थीं। उस यज्ञमण्डप में जो स्तम्भ बड़ी शोभा पाता था। उसमें सोने का यज्ञमण्डप बना था, जिसका विस्तार बीस योजन था। चँदोवों, बंदनवारों और कदलीखण्ड से सह यज्ञमण्डप मण्डित था। उस यज्ञ में ब्रह्मा-रुद्र आदि देवता अपने गणों के साथ पधारे थे। उस यज्ञ में दस लाख होता, दस लाख दीक्षित, पांच लाख अध्वर्यु और उदाता अलग थे। वहाँ चारों वेदों के विद्वान ब्राह्मण बुलाये गये थे, जो सम्पूर्ण शास्त्रों के अर्थतत्व के ज्ञाता थे। उस यज्ञ में हाथी की सूँड़ के समान घी की मोटी घृत-धाराओं की आहुति दी गयी थी, जिसको खाकर अग्निदेव को अजीर्ण का रोग हो गया। मिथिलेश्वर ! उस यज्ञ के विषय में ऐसा होना कोई विचित्र बात न जानो। उस यज्ञ में विश्वदेवगण सभासद थे। वे जिन जिनके लिये भाग देना आवश्यक बताते थे, उन उनके लिये भाग का परिवेषण स्वयं मरुद्गण करते थे। उस यज्ञ के समय त्रिलोकी में कोई भी ऐसे जीव नहीं नहीं थे, जो भूखे रह गये हों। सम्पूर्ण देवताओं को सोमरस पीते-पीते अजीर्ण हो गया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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