गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-10 : अध्याय 13
प्रवचन : 1
पहले श्री गणेश का स्मरण करते हैं। गणेश का अर्थ यह है कि जो गण-गण-गण अलग हो जाते हैं, विषयों के गण, इन्द्रियों के गण मनोवृत्तियों के गण टुकड़े-टुकड़े -जैसे सेना हो और उसका कोई नायक न हो, कोई स्वामी न हो, गणों का संचालक न हो तो ये विघ्नरूप हो जाते हैं। जहाँ इनमें फूट पड़ी-जैसे कई संस्थाएँ बन रही हों या संस्थाओं के कई सदस्य हों, उनमें फूट पड़ जाय तो वे कोई काम नहीं कर सकतीं। ऐसे ही जो हमारे भिन्न-भिन्न गण हैं-विनायक, नायक-रहित हो जाते हैं। विघ्नदाताओं को ही संस्कृत भाषा में विनायक बोलते हैं। उन विनायकों के जो स्वामी हैं- गणेश, वे हमारे विषय भोग को भी व्यवस्थित रखें, कर्मेंद्रियों को भी व्यवस्थित रखें, ज्ञानेद्रियों को भी व्यवस्थित रखें; मनोवृत्तियों के जो गण हैं उनको भी व्यवस्थित रखें, और काम, क्रोध आदि जो विघ्न हैं, उन विघ्नों का निवारण करें। इसलिए किसी भी कर्म के प्रारम्भ में गणेश का स्मरण किया जाता है। आपके कारखानों में भी यदि कई यूनियन हों तो उनके जो अध्यक्ष हों, उनको अपने हाथ में रखना चाहिए। पहले गणेश को नमस्कार कर रहे हैं। फिर ज्ञानदाता सद्गुरु के लिए नमस्कार। फिर ये जो वाग् देवता हैं-सरस्वती माने वाणी-‘अमुष्य वाणी रसनाग्रनर्तकी’ श्री हर्ष ने कहा कि इनकी जीभ पर सरस्वती नाचती है। हमारे भीतर जो छिपे हुए तत्त्व हैं उनको बाहर लाकर प्रकट करने वाली वागदेवता हैं। जो जीवन में ज्ञान का संचय हुआ है, पाँच नदियों ने ले जाकर जो हृदय में रस की धारा संचित की है, उस रससार-संग्रह को, बाहर उँड़ेलती हैं-वागदेवी, वे जिह्वा पर आकर अपना काम करें। भागवत में है-‘सोऽलड्कृषीष्ट भगवान् वचांसि मे’-भगवान् मेरी वाणी को अलंकृत करें। भगवद्गीता- यह भगवती गीता है-यह भगवान् के द्वारा गीत है। भगवान् का संगीत है। आप इस बात की कल्पना कीजिये कि रणभूमि में, युद्धभूमि में, अर्जुन यह भूल जाता है कि हम किसी पक्ष से युद्ध करने आये हैं, या हमारे पक्षी-प्रतिपक्षी अस्त्र-शस्त्र की वर्षा करने के लिए उद्यत हैं, तैयार खड़े हैं, तत्पर हैं। अर्जुन प्रश्न करते हैं- एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 12.1
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