गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-11 : अध्याय 14
प्रवचन : 2
प्रश्न: यह क्षेत्र जो ‘यत्’ है ‘यादृक्’ जैसा है, ‘यद् विकारि’-जिन विकारों वाला है और ‘यतः’ जिस कारण से हुआ है उसकी संक्षिप्त व्याख्या करने के लिए भगवान प्रवृत्त होते हैं। कृपया ‘यत्’ ‘यादृक् आदि को स्पष्ट करते हुए बताइये कि इनका उत्तर आगे के किन-किन श्लोकों में किस प्रकार किया गया है? उत्तर: क्षेत्र का स्वरूप बताया पहले- महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च। परमात्मा के सिवाय और जो कुछ है, वह सब विकारी होता है। मन का विकारी होना माने बदलना। एक परमात्मा ही ऐसी वस्तु है जो कभी बदलता नहीं है। पहले अव्यक्त है। अव्यक्त माने जो प्रमाण के द्वारा व्यजिंत न हो, जिसको जाहिर करने में आँख, कान, नाक, ये सब समर्थ न हों, जैसे घनी, गाढ़ सुषुप्ति में। एक क्षेत्र वह है। अब उसके बाद-गाढ़ सुषुप्ति के बाद जैसे बुद्धि जगती है-होश आता है-वह द्वितीय क्षेत्र है। और फिर मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ, यह मालूम पड़ता है। आप रोज इसका अनुभव करते हैं। गाढ़ सुषुप्ति अव्यक्त है, होश आ जाना माने नींद टूटना और यह होश आना बुद्धि है; इसको महतत्त्व बोलते हैं। और फिर मैं कौन हूँ, यह अहंकार है और उसके बाद दुनिया दिखती है। महाभूत आकर सामने खड़े हो जाते हैं। उनमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये होते हैं और उसके बाद अपनी इन्द्रियाँ मालूम पड़ती हैं। पाँच कर्मेन्द्रिय और पाँच ज्ञानेन्द्रिय और इसके बाद मन-फिर यह होता है कि हमको क्या चाहिए, क्या नहीं चाहिए। विषयों का ज्ञान होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 13.5-6
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