गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-5 : अध्याय 8
प्रवचन : 6
गीता के आठवें अध्याय में परमात्मा के अनुचिन्तन और अनुस्मरण दोनों की महिमा और दोनों का फल बताया गया है। अनुचिन्तन और अनुस्मरण, चिन्तन में जो चिन्तन करता है, उसका बल काम करता है और स्मरण में जो सुनी-देखी, अनुभव की हुई वस्तु होती है, उस वस्तु का स्फुरण, काम करता है। कर्ता की प्रधानता से होता है चिन्तन और अनुभूत वस्तु की प्रधानता से होता है स्मरण। चिन्तन हमें जोर लगाकर करना चाहिए। जब अनुभव हो जायेगा तो स्मरण अपने आप होने लगेगा। आपको अपने प्रिय, अप्रिय दोनों का स्मरण बिना बल लगाये एकाएक हो जाता है? माँ की याद आती है, बाप की याद आती है, अपने मित्र की, पुत्र की याद आती है। यह स्मरण जो बार-बार सुना हुआ है, बार-बार देखा हुआ है, जिस दुःख का, सुख का अनुभव हुआ है, उसका स्मरण अपने हृदय में उतरता है। स्मरण अवतार है। चिन्तन उतार है। चिन्तन हमारी ओर से उस वस्तु का किया जाता है जिसका हम चिन्तन करना चाहते हैं। परं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्। पहले दिया चिन्तन और बाद में दिया अनुस्मरण।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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