गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 9
विषय-सुख दु:खों से घिरे हुए हैं एवं अलातचक्रवत (जलते हुए अंगार को वेग से चक्राकार घुमाने पर जो क्षणस्थायी वृत बनता है, उसके समान) हैं। जैसे वृक्ष न चलते हुए भी, जल के चलने के कारण चलते हुए से दीखते हैं, नेत्रों को वेग से घुमाने पर अचल पृथ्वी भी चलती हुई-सी दीखती है, कृष्ण! उसी प्रकार प्रकृति से उत्पन्न गुणों के वश में होकर भ्रांत जीव उस प्रकृतिजन्य सुख को सत्य मान लेता है। सुख एवं दु:ख मन से उत्पन्न होते हैं, निद्रावस्था में वे लुप्त हो जाते हैं और जागने पर पुन: उनका अनुभव होने लगता है। जिनको इस प्रकार का विवेक प्राप्त है, उनके लिये यह जगत निरंतर स्वप्नावस्था के भ्रम के समान ही है। ज्ञानी पुरुष ममता एवं अभिमान का त्याग करके सदा वैराग्य से प्रीति करने वाले तथा शांत होते हैं। जैसे एक दिये से सैकड़ों दिये उत्पन्न होते हैं, वैसे ही एक परमात्मा से सब कुछ उत्पन्न हुआ है-ऐसी तात्त्विक दृष्टि उनकी रहती है। “भक्त निर्धूम अग्निशिखा की भाँति गुणमुक्त एवं आत्मनिष्ठ होकर हृदय में ब्रह्मा के भी स्वामी भगवान वासुदेव का भजन करते हैं। जिस प्रकार हम एक ही चन्द्रबिम्ब को अनेकों घड़ों के जल में देखते हैं, उसी प्रकार आत्मा के एकत्व का दर्शन करके श्रेष्ठ परमहंस भी कृतार्थ होते हैं। निरंतर स्तवन करते रहने पर भी वेद जिनके माहात्म्य के षोड़शांश का भी कभी ज्ञान नहीं प्राप्त कर सके, तब त्रिलोकी में उन श्री हरि के गुणों का वर्णन भला, दूसरा कौन कर सकता है ? मैं चार मुखों से, देवाधिदेव महादेवजी पाँच मुखों से तथा हजार मुख वाले शेष जी अपने सहस्र मुखों से जिनकी स्तुति-सेवा करते हैं, वैकुण्ठ निवासी विष्णु, क्षीरोदशायी साक्षात हरि और धर्मसुत नारायण ऋषि उन गोलोकपति आपकी सेवा किया करते हैं। अहा ! मुरारे ! आपकी महिमा धन्य है। भूतल पर उस महिमा को न मुनिगण जानते हैं न मनुष्य ही! सुर-असुर तथा चौदहों मनु भी उसे जानने में असमर्थ हैं। ये सब स्वप्न में भी आपके चरणकमलों के दर्शन पाने में असमर्थ हैं। गुणों के सागर, मुक्तिदाता, परात्पर, रमापति, गुणेश, व्रजेश्वर श्री हरि को मैं नमस्कार करता हूँ। ताम्बूल रागरंजित सुन्दर मुख से सुशोभित, मधुरभाषी, पके हुए बिम्बफल के समान लाल-लाल अधरों वाले, स्मितहास्ययुक्त, कुन्दकली के समान शुभ्र दंत पंक्ति से जगमगाते हुए, नील अलकों से आवृत कपोलों वाले, मनोहर-कांति तथा झूलते हुए स्वर्ण-कुण्डलों से मण्डित श्रीकृष्ण मैं वन्दना करता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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