गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 23
इस प्रकार शंखचूड़ के आते ही रासमण्डल में हाहाकार मच गया। वह कामपीड़ित दुष्ट यक्षराज शतचन्द्रानना नामवाली गोपसुन्दरी को पकड़कर बिना किसी भय और आशंका के उत्तर दिशा की ओर दौड़ चला। शतचन्द्रानना भय से व्याकुल हो ‘कृष्ण ! कृष्ण !!’ पुकारती हुई रोने लगी। यह देख श्रीकृष्ण अत्यंत कुपित हो, शाल का वृक्ष हाथ में लिये, उसके पीछे दौड़े। काल के समान दुर्जय श्रीकृष्ण को पीछा करते देख यक्ष उस गोपी को छोड़कर भय से विह्वल हो प्राण बचाने की इच्छा से भागा। महादुष्ट शंखचूड़ भागकर जहाँ-जहाँ गया, वहाँ-वहाँ श्रीकृष्ण भी शालवृक्ष हाथ में लिये अत्यंत रोषपूर्वक गये। राजन ! हिमालय की घाटी में पहुँचकर उस यक्षराज ने भी एक शाल उखाड़ लिया और उनके सामने विशेषत: युद्ध की इच्छा से वह खड़ा हो गया। भगवान ने अपने बाहुबल से शंखचूड़ पर उस शालवृक्ष को दे मारा। उसके आघात से शंखचूड़ आँधी के उखाड़े हुए पेड़ की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा। शंखचूड़ ने फिर उठकर भगवान श्रीकृष्ण को मुक्के से मारा। मारकर वह दुष्ट यक्ष सम्पूर्ण दिशाओं को निनादित करता हुआ सहसा गरज ने लगा। तब श्रीहरि ने उसे दोनों हाथों से पकड़ लिया और भुआओं के बल से घुमाकर उसी तरह पृथ्वी पर पटक दिया और वायु उखाड़े हुए कमल को फेंक देती है। शंखचूड़ ने भी श्रीकृष्ण को पकड़कर धरती पर दे मारा। जब इस प्रकार युद्ध चलने लगा, तब सारा भूमण्डल काँप उठा। तब माधव श्रीकृष्ण ने मुक्के की मार से उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया और उसकी चूड़ामणि ले ली-ठीक उसी तरह जैसे कोई पुण्यात्मा पुरुष कहीं से निधि प्राप्त कर लेता है। नरेश्वर ! शंखचूड़ के शरीर से एक विशाल ज्योति निकली और दिग्मण्डल को प्रकाशित करती हुई व्रज में श्रीकृष्णसखा श्रीदामा के भीतर विलीन हो गयी। इस प्रकार शंखचूड़ का वध करके भगवान मधुसूदन, हाथ में मणि लिये, फिर शीघ्र ही रास-मण्डल में आ गये। दीनवत्सल श्रीहरि ने वह मणि शतचन्द्रानना को दे दी और पुन: समस्त गोपांगनाओं के साथ रास आरम्भ किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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