गर्ग संहिता
गिरिराज खण्ड : अध्याय 4
राजन् ! श्रीकृष्ण का अभिषेक सम्पन्न हो जाने पर वहा महान पर्वत गोवर्धन हर्ष एवं आनन्द से द्रवीभूत होकर सब ओर बहने लगा। तब भगवान ने प्रसन्न होकर उसके उपर अपना हस्तकमल रखा। नरेश्वर ! उस पर्वत पर भगवान के हाथ का वह चिन्ह आज भी दृष्टिगोचर होता है। वह परम पवित्र तीर्थ हो गया, जो मनुष्यों के पापों का नाश करने वाला है। वहीं चरणचिन्ह भी है। मैथिल ! उसे भी परम तीर्थ समझो। जहाँ हस्तचिन्ह है, वहीं उतना ही बड़ा चरणचिन्द भी हुआ। मैथिल ! उसी स्थान पर सुरभि देवी के चरणचिह्न भी बने गये। मिथिलेश्वर ! श्रीकृष्ण के स्नान के निमित जो आकाश गंगा का जल गिरा, उससे वहीं ‘मानसी गंगा’ प्रकट हो गयीं, जो सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाली हैं। नरेश्वर ! सुरभि की दुग्ध-धाराओं से गोविन्द ने जो स्नान किया, उससे उस पर्वत पर ‘गोविन्द कुण्ड’ प्रकट हो गया, जो बड़े-बड़े पापों को हर लेने वाला परम पावन तीर्थ है। कभी-कभी उस तीर्थ के जल में दूध का-सा स्वाद प्रकट होता है। उसमें स्नान करके मनुष्य साक्षात गोविन्द के धाम को प्राप्त होता है। इस प्रकार वहाँ श्रीहरि की परिक्रमा करके, उन्हें प्रणापूर्वक बलि (पूजोपहार) समर्पित करने के पश्चात, इन्द्र आदि देवता जय-जयकार पूर्वक पुष्प बरसाते हुए बड़े सुख से स्वर्गलोक को लौट गये। राजेन्द्र ! जो श्रीकृष्णाभिषेक की इस कथा को सुनता है, वह दस अश्वमेध यज्ञों के अवभृथ-स्नान से अधिक पुण्य-फल को पाता है। फिर वह परम-विधाता परमेश्वर श्रीकृष्ण के परमपद को प्राप्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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