श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 127

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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कर्मयोग
अध्याय 3 : श्लोक-4

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥[1]

भावार्थ

न तो कर्म से विमुख होकर कोई कर्मफल से छुटकारा पा सकता है और न केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।

तात्पर्य

भौतिकतावादी मनुष्यों के हृदयों को विमल करने के लिए जिन कर्मों का विधान किया गया है, उनके द्वारा शुद्ध हुआ मनुष्य ही संन्यास ग्रहण कर सकता है। शुद्धि के बिना संन्यास ग्रहण करने से सफलता नहीं मिल पाती। ज्ञानयोगियों के अनुसार संन्यास ग्रहण करने अथवा सकाम कर्म से विरत होने से ही मनुष्य नारायण के समान हो जाता है। किन्तु भगवान् कृष्ण इस मत का अनुमोदन नहीं करते। हृदय की शुद्धि के बिना संन्यास सामाजिक व्यवस्था में उत्पात उत्पन्न करता है। दूसरी ओर यदि कोई नियत कर्मों को न करके भी भगवान् की दिव्य सेवा करता है, तो वह उस मार्ग में जो कुछ भी उन्नति करता है उसे भगवान् स्वीकार कर लेते हैं।[2] स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्। ऐसे सिद्धान्त की रंचमात्र सम्पन्नता भी महान कठिनाइयों को पार करने में सहायक होती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न – नहीं; कर्मणाम् – नियत कर्मों के; अनाराम्भात् – न करने से; नैष्कर्म्यम् – कर्मबन्धन से मुक्ति को; पुरुषः – मनुष्य; अश्नुते – प्राप्त करता है; न – नहीं; च – भी; संन्यसनात् – त्याग से; एव – केवल; सिद्धिम् – सफलता; समधिगच्छति– प्राप्त करता है।
  2. बुद्धियोग

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