श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 266

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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ध्यानयोग
अध्याय 6 : श्लोक-7

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो:॥[1]

भावार्थ

जिसने मन को जीत लिया है, उसने पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है, क्योंकि उसने शान्ति प्राप्त कर ली है। ऐसे पुरुष के लिए सुख-दुख, सर्दी-गर्मी एवं मान-अपमान एक से हैं।

तात्पर्य

वस्तुतः प्रत्येक जीव उस भगवान की आज्ञा का पालन करने के निमित्त आया है, जो जन-जन के हृदयों में परमात्मा-रूप में स्थित है। जब मन बहिरंगा माया द्वारा विपथ पर कर दिया जाता है, तब मनुष्य भौतिक कार्यकलापों में उलझ जाता है। अतः ज्योंही मन किसी योगपद्धति द्वारा वश में आ जाता है, त्योंही मनुष्य को लक्ष्य पर पहुँच हुआ मान लिया जाना चाहिए। मनुष्य को भगवद-आज्ञा का पालन करना चाहिए। जब मनुष्य का मन परा-प्रकृति में स्थिर हो जाता है तो जीवात्मा के समक्ष भगवद-आज्ञा पालन करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह जाता। मन को किसी न किसी उच्च आदेश को मानकर उनका पालन करना होता है। मन को वश में करने से स्वतः ही परमात्मा के आदेश का पालन होता है। चूँकि कृष्णभावनाभावित होते ही यह दिव्य स्थिति प्राप्त हो जाती है, अतः भगवद्भक्त संसार के द्वन्द्वों, यथा सुख-दुख, सर्दी-गर्मी आदि से अप्रभावित रहता है। यह अवस्था व्यावहारिक समाधि या परमात्मा में तल्लीनता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जित-आत्मनः – जिसने मन को जीत लिया है; प्रशान्तस्य – मन को वश में करके शान्ति प्राप्त करने वाले का; परम-आत्मा – परमात्मा; समाहितः– पूर्णरूप से प्राप्त; शीत – सर्दी; उष्ण – गर्मी में; सुख – सुख; दुःखेषु – तथा दुख में; तथा – भी; मान – सम्मान; अपमानयोः – तथा अपमान में।

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