श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 647

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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पुरुषोत्तम योग
अध्याय 15 : श्लोक-8


शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर: ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥8॥[1]

भावार्थ

इस संसार में जीव अपनी देहात्मबुद्धि को एक शरीर से दूसरे में उसी तरह ले जाता है, जिस तरह वायु सुगन्धि को ले जाता है। इस प्रकार वह एक शरीर धारण करता है और फिर इसे त्याग कर दूसरा शरीर धारण करता है।

तात्पर्य

यहाँ पर जीव को ईश्वर अर्थात अपने शरीर का नियामक कहा गया है। यदि वह चाहे तो अपने शरीर को त्याग कर उच्चतर योनि में जा सकता है और चाहे तो निम्नयोनि में जा सकता है। इस विषय में उसे थोड़ी स्वतन्त्रता प्राप्त है। शरीर में जो परिवर्तन होता है, वह उस पर निर्भर करता है। मृत्यु के समय वह जैसी चेतना बनाये रखता है, वही उसे दूसरे शरीर तक ले जाती है। यदि वह कुत्ते या बिल्ली जैसी चेतना बनाता है, तो उसे कुत्ते या बिल्ली का शरीर प्राप्त होता है। यदि वह अपनी चेतना दैवी गुणों में स्थित करता है, तो उसे देवता का स्वरूप प्राप्त होता है। और यदि वह कृष्णभावनामृत में होता है, तो वह आध्यात्मिक जगत में कृष्णलोक को जाता है, जहाँ उसका सान्निध्य कृष्ण से होता है। यह दावा मिथ्या है कि इस शरीर के नाश होने पर सब कुछ समाप्त हो जाता है। आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण करता है, और वर्तमान शरीर तथा वर्तमान कार्यकलाप ही अगले शरीर का आधार बनते हैं। कर्म के अनुसार भिन्न शरीर प्राप्त होता है और समय आने पर यह शरीर त्यागना होता है। यहाँ यह कहा गया है कि सूक्ष्म शरीर, जो अगले शरीर का बीज वहन करता है, अगले जीवन में दूसरा शरीर निर्माण करता है। एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण की प्रक्रिया तथा शरीर में रहते हुए संघर्ष करने को कर्षति अर्थात जीवन संघर्ष कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शरीरम्= शरीर को; यत्= जिस; अवाप्नोति= प्राप्त करता है; यत्= जिस; च= तथा; अपि= भी; उत्क्रामति= त्यागता है; ईश्वरः= शरीर का स्वामी; गृहीत्वा= ग्रहण करके; एतानि= इन सबको; संयाति= चला जाता है; वायुः= वायु; गन्धान्= महक को; इव= सदृश; आशयात्= स्त्रोत से।

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