श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 716

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्रद्धा के विभाग
अध्याय 17 : श्लोक-17


श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरै: ।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तै: सात्त्विकं परिचक्षते ॥17॥[1]

भावार्थ

भौतिक लाभ की इच्छा न करने वाले तथा केवल परमेश्वर में प्रवृत्त मनुष्यों द्वारा दिव्य श्रद्धा से सम्पन्न यह तीन प्रकार की तपस्या सात्त्विक तपस्या कहलाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रद्धया= श्रद्धा समेत; परया= दिव्य; तप्तम्= किया गया; तपः= तप; तत्= वह; त्रि-विधम्= तीन प्रकार के; नरैः= मनुष्यों द्वारा; अफल-आकाड़क्षिभिः= फल की इच्छा न करने वाले; युक्तैः= प्रवृत्त; सात्त्विकम्= सतोगुण में; परिचक्षते= कहा जाता है।

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