श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 195

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-12

काङ्न्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥[1]

भावार्थ

इस संसार में मनुष्य सकाम कर्मों में सिद्धि चाहते हैं, फलस्वरूप वे देवताओं की पूजा करते हैं। निस्सन्देह इस संसार में मनुष्यों को सकाम कर्म का फल शीघ्र प्राप्त होता है।

तात्पर्य

इस जगत के देवताओं के विषय में भ्रान्त धारणा है और विद्वत्ता का दम्भ करने वाले अल्पज्ञ मनुष्य इन देवताओं को परमेश्वर के विभिन्न रूप मान बैठते हैं। वस्तुतः ये देवता ईश्वर के विभिन्न रूप नहीं होते, किन्तु वे ईश्वर के विभिन्न अंश होते हैं। ईश्वर तो एक है, किन्तु अंश अनेक हैं। वेदों का कथन है– नित्यो नित्यनाम ईश्वर एक है। ईश्वरः परमः कृष्णः। कृष्ण ही एकमात्र परमेश्वर हैं और सभी देवताओं को इस भौतिक जगत का प्रबन्ध करने के लिए शक्तियाँ प्राप्त हैं। वे कभी परमेश्वर– नारायण, विष्णु या कृष्ण के तुल्य नहीं हो सकते। जो व्यक्ति ईश्वर तथा देवताओं को एक स्तर पर सोचता है, वह नास्तिक या पाषंडी कहलाता है। यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिव जी जैसे बड़े-बड़े देवता परमेश्वर की समता नहीं कर सकते। वास्तव में ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवताओं द्वारा भगवान की पूजा की जाती है (शिवविरिञ्चिनुतम्)। तो भी आश्चर्य की बात यह है कि अनेक मुर्ख लोग मनुष्यों के नेताओं की पूजा उन्हें अवतार मान कर करते हैं। इह देवताः पास इस संसार के शक्तिशाली मनुष्य या देवता के लिए आया है , लेकिन नारायण, विष्णु या कृष्ण जैसे भगवान इस संसार के नहीं हैं। वे भौतिक सृष्टि से परे रहने वाले हैं। निर्विशेषवादियों के अग्रणी श्रीपाद शंकराचार्य तक मानते हैं कि नारायण या कृष्ण इस भौतिक सृष्टि से परे हैं फिर भी मुर्ख लोग (हतज्ञान) देवताओं की पूजा करते हैं, क्योंकि वे तत्काल फल चाहते हैं। उन्हें फल मिलता भी है, किन्तु वे यह नहीं जानते की ऐसे फल क्षणिक होते हैं और अल्पज्ञ मनुष्यों के लिए हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. काङ्क्षन्तः – चाहते हुए; कर्मणाम् – सकाम कर्मों की; सिद्धिम् – सिद्धि; यजन्ते – यज्ञों द्वारा पूजा करते हैं; इह - इस भौतिक जगत् में; देवताः – देवतागण; क्षिप्रम् – तुरन्त ही; हि – निश्चय ही; मानुषे – मानव समाज में; लोके – इस संसार में; सिद्धिः – सिद्धि, सफलता; भवति – होती है; कर्म-जा – सकाम कर्म से।

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