श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 537

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भक्तियोग
अध्याय 12 : श्लोक-9


अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।[1]

भावार्थ
हे अर्जुन, हे धनञ्जय! यदि तुम अपने चित्त को अविचल भाव से मुझ पर स्थित नहीं कर सकते, तो तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का पालन करो। इस प्रकार तुम मुझे प्राप्त करने की चाह उत्पन्न करो।
तात्पर्य

इस श्लोक में भक्तियोग की दो पृथक-पृथक विधियाँ बताई गई हैं। पहली विधि उस व्यक्ति पर लागू होती है, जिसने दिव्य प्रेम द्वारा भगवान कृष्ण के प्रति वास्तविक आसक्ति उत्पन्न कर ली है। दूसरी विधि उसके लिए है जिसने इस प्रकार से भगवान कृष्ण के प्रति आसक्ति नहीं उत्पन्न की। इस द्वितीय श्रेणी के लिए नाना प्रकार के विधि-विधान हैं, जिनका पालन करके मनुष्य अंतत: कृष्ण-आसक्ति अवस्था को प्राप्त हो सकता है।

भक्तियोग इन्द्रियों का परिष्कार (संस्कार) है। संसार में इस समय सारी इन्द्रियाँ सदा अशुद्ध हैं, क्योंकि वे इंद्रियतृप्ति में लगी हुई हैं। लेकिन भक्तियोग के अभ्यास से ये इंद्रियाँ शुद्ध की जा सकती हैं, और शुद्ध हो जाने पर वे परमेश्वर के सीधे सम्पर्क में आती हैं। इस संसार में रहते हुए में किसी अन्य स्वामी की सेवा में रत हो सकता हूँ, लेकिन में सचमुच उसकी प्रेमपूर्ण सेवा नहीं करता। मैं केवल धन पाने के लिए सेवा करता हूँ। ओर स्वामी भी मुझ से प्रेम नहीं करता है, वह मुझसे सेवा कराता है और मुझे धन देता है। अतएव प्रेम का प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन आध्यात्मिक जीवन के लिए मनुष्य को प्रेम की शुद्ध अवस्था तक ऊपर उठना होता है। यह प्रेम अवस्था इन्हीं इंद्रियाँ के द्वारा भक्ति के अभ्यास से प्राप्त की जा सकती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अथ=यदि; चित्तम्=मन को; समधातुम्=स्थिय करने में; शक्नोषि=समर्थ नहीं हो; मयि=मुझ पर; स्थिरम्=स्थित भाव से; अभ्यास-योगेन=भक्ति के अभ्यास से; तत=तब; माम्=मुझको; इच्छ=इच्छा करो; आप्तुम्=प्राप्त करने की; धनम्-जय=हे सम्पत्ति के विजेता, अर्जुन।

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