श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 673

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-4


दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोध: पारुष्यमेव च ।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संम्पदमासुरीम् ॥4॥[1]

भावार्थ

हे पृथापुत्र! दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोरता तथा अज्ञान-ये आसुरी स्वभाव वाले के गुण हैं।

तात्पर्य

इस श्लोक में नरक के राजमार्ग का वर्णन है। आसुरी स्वभाव वाले लोग धर्म तथा आत्मविद्या की प्रगति का आडम्बर रचना चाहते हैं, भले ही वे उनके सिद्धान्तों का पालन न करते हों। वे सदैव किसी शिक्षा या प्रचुर सम्पत्ति का अधिकारी होने का दर्प करते हैं। वे चाहते हैं कि अन्य लोग उनकी पूजा करें और सम्मान दिखलाएँ, भले ही वे सम्मान के योग्य न हों। वे छोटी-छोटी बातों पर क्रूद्ध जो जाते हैं खरी-खोटी सुनाते हैं और नम्रता से नहीं बोलते। वे यह नहीं जानते कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। वे अपनी इच्छानुसार, सनकवश, सारे कार्य करते हैं। वे किसी प्रमाण को नहीं मानते। वे ये आसुरी गुण तभी से प्राप्त करते हैं, जब वे अपनी माताओं के गर्भ में होते हैं और ज्यों-ज्यों वे बढ़ते हैं, त्यों-त्‍यों ये अशुभ गुण प्रकट होते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दम्भः= अहंकार; दर्पः= घमण्ड; अभिमानः= गर्व; च= भी; क्रोधः= क्रोध,गुस्सा; पारुष्यम्= निष्ठुरता; एव= निश्चय ही; च= तथा; अज्ञानम्= अज्ञान; च= तथा; अभिजातस्य= उत्पन्न हुए के; पार्थ= हे पृथापुत्र; सम्पदम्= गुण; आसुरीम्= आसुरी प्रकृति।

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