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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
29.सांख्य का विवेचन
इसके आगे बाईसवें अध्याय में सांख्यतत्त्व का विवेचन किया गया है। देखो सांख्यतत्त्व का अर्थ है प्रकृति-पुरुष का विवेक, जिसमें चौबीस तत्त्वों का विवेचन किया गया है। तृतीय स्कन्ध में कपिल मुनि तथा माता देवहूति के संवाद में इसे हम देख चुके हैं। उद्धव जी प्रश्न पूछते हैं - भगवान, प्रकृति के तीन गुणों के कारण हमारे मन में विभिन्न प्रकार के विचार, वृत्तियाँ उत्पन्न होती रहती हैं। उनके कारण मनुष्य को किस-किस प्रकार की श्रेष्ठ या निम्न गति प्राप्त होती है, यह आप बताइये। श्रीमद्भगवद्गीता में भी इसका वर्णन बहुत अच्छी प्रकार से किया गया है।
वहाँ चौदहवें अध्याय में बताया गया है कि सात्त्विक वृत्ति वाले - सत्त्व गुण प्रधान लोग देव लोग आदि को प्राप्त होते हैं। राजसिक वृत्ति वाले कर्म प्रधान लोग मनुष्य योनी में आते हैं, और तमोगुण प्रधान लोग पशु योनियों को प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार गीताजी में कर्म की भी गति बतायी गयी है। भगवान ने कहा है कि हम जिस प्रकार के विषयों की भावना करते रहते हैं, उसी प्रकार की गति को प्राप्त होते हैं देखो, सरल सिद्धान्त यह है कि जीवन भर हम जिस चीज का चिन्तन करते रहते हैं, उसी के अनुरूप हमारा स्वभाव, वृत्ति बन जाती है और मरण काल में जैसी वृत्ति होगी वैसी ही गति हो जाएगी। राजा भरत हिरन-हिरन करते रहे, तो उसी के फलस्वरूप उन्हें हिरन का ही रूप प्राप्त हो गया। वास्तव में तो मरने की प्रतीक्षा करने की भी आवश्यकता नहीं है। हम क्षण-क्षण मर ही रहे हैं। मन में क्रोध की वृत्ति आयी, और उसके साथ तादात्म्य कर लिया तो क्रोधी आदमी का जन्म हो गया, भय की वृत्ति आयी, तो डरपोक आदमी पैदा हो गया। हमारे भागवत शास्त्र में जन्म-मरण की सीधी-सी बात बतायी गई है। बोले, मन में उठने वाली नई-नई वृत्तियों के साथ तादात्म्य कर लेना ही ‘जन्म’ है। यहाँ हम एक-एक चीज के साथ तादात्म्य कर लेते हैं। अब देह के साथ तादात्म्य हो गया तो देहधारी बन जाते हैं। यदि वह पुरुष देह हो तो पुरुष बन जाते हैं, और यदि स्त्री देह हो तो स्त्री बन जाते हैं। यही जन्म है। जीव न स्त्री है न पुरुष है, वह जिसके साथ तादात्म्य कर लेता है, वही बन जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भ.गीता 14.17
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